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गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

यूपी सरकार का अड़ियल रवैया

                                                      कानूनी तौर पर विधायी, सामाजिक और संवैधानिक मुद्दों के प्रति लापरवाह रहने वाली यूपी सरकार के लिए नए लोकायुक्त की सुप्रीम कोर्ट द्वारा जिस तरह से नियुक्ति की गयी उससे यही लगता है कि अखिलेश सरकार के कानूनी सलाहकार पूरी तरह से अक्षम हैं भले ही वे किसी भी तरह से अन्य मामलों में और गुण रखते हों पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से जिस तरह से सरकार को लगातार सुननी पड़ रही है उसे देखते हुए अब उन्हें अपने इस टीम में बड़े बदलाव के बारे में सोचना ही होगा वर्ना संभवतः वे देश के एकमात्र सीएम साबित होंगें जिनके सामान्य विधायी कार्यों में भी कोर्ट्स के अनगिनत बार दखल के लिए उन्हें याद किया जायेगा. कानूनी रूप से किसी मामले में कुछ बिन्दुओं का छुट जाना एक गलती हो सकती है पर जिस तरह से अखिलेश सरकार के लिए कोर्ट्स से लगातार फटकार ही सामने आ रही है उससे यही लगता है कि खुद अखिलेश के लिए निर्णय लेते समय कानूनी सहायता देने के लिए उनके पास सही टीम का पूरी तरह से अभाव है. इसका सीधा असर जनता से जुड़े मुद्दों पर पड़ने के साथ ही सरकार की साख पर भी पड़ता है और कहीं न कहीं न्यायालय के अंदर भी यह धारणा भी बन जाती है कि यह सरकार सामान्य कानूनी पहलुओं की अनदेखी करती ही रहती है.
                                   आज जिस तेज़ी से सामान्य विधायी कार्यों में केंद्र से लगाकर राज्यों तक में इस तरह की समस्याएं सामने आने लगी हैं उससे यही लगता है कि सरकार में बैठे हुए लोगों को यही लगने लगा है कि जनता से सहमति पाकर वे कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हैं और इसके लिए उन्हें कोई भी रोकने वाला नहीं है. लोकायुक्त जैसे पद पर नियुक्ति अखिलेश सरकार के लिए शुरू से ही मसीबत बनी हुई है क्योंकि अपने चहेते को इस संवैधानिक पद पर बैठाकर सरकार खुद को लम्बे समय तक सुरक्षित करना चाह रही थी पर सुप्रीम कोर्ट के सामने मामला जाने के बाद जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए सीएम, नेता प्रतिपक्ष और इलाहबाद हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस की समिति के बारे में भी निराशा व्यक्त की वह आज देश के नेताओं की सामान्य विधायी कार्यों में अरुचि को ही दर्शाता है जबकि इस मामले में हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस का रोल बहुत सीमित ही रहा करता है. भ्रष्टाचार की आग में जल रहे यूपी के सत्ता के करीबी लोगों को लगातार बचाने की अनर्गल कोशिशों के बाद जिस तरह से अखिलेश सरकार ने न्यायालय का भरोसा खोया है वह निश्चित रूप से चिंतनीय है.
                          सरकारें आती जाती रहती हैं पर इस तरह से कानून बनाने और उनके अनुपालन करने के समय पर इतनी लापरवाही का किसी भी स्तर पर कड़ा विरोध ही किया जाना चाहिए क्योंकि सरकार के अधिकांश काम जनता से जुड़े हुए ही होते हैं और यदि इन कामों के लिए जनता के पास विकल्प ही नहीं है तो ऐसी सरकार के अस्तित्व में होने और न होने के कोई मायने ही नहीं हैं. अब यूपी अगले वर्ष के उत्तरार्ध से चुनावी मोड में पहुँच जायेगा और इस बार भाजपा अपने पैर मज़बूती से ज़माने तथा लोकसभा की सफलता को दोहराने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार बैठी है. इस परिस्थिति में अखिलेश सरकार द्वारा किये गए महत्वपूर्ण काम इस तरह की लापरवाही से पीछे ही छूट जाने वाले हैं जिसके लिए अभी अखिलेश खुद मानसिक रूप से तैयार नहीं दिखाई देते हैं. पिछले कुछ महीनों में उन्होंने अपनी सरकार के हर मोर्चे पर गिरते हुए ग्राफ को जिस तरह से सँभालने का काम शुरू किया है उसमें अब उन्हें कानून के सम्मान के बारे में भी ध्यान देना ही होगा क्योंकि मायावती की जमीनी तैयारियां उनके लिए खतरे की घंटी पहले ही बजा चुकी हैं और इसमें अब चूकने का मतलब अपनी अगली विधानसभा में प्रभावी स्थिति खोने के रूप में भी सामने आ सकता है.
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