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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

मोदी की नसीहत का यथार्थ

                                                                       पिछली मनमोहन सिंह सरकार के खिलाफ चुनाव प्रचार शुरू होने से पहले ही जिस तरह से मोदी ने संघ और भाजपा के साथ मिलकर विभिन्न मुद्दों पर उनको घेरने की योजना पर काम किया था चुनावी राजनीति में वह पूरी तरह से कारगर रही पर सरकार बनने के बाद लोकसभा में कमज़ोर विपक्ष के साथ काम करने के लिए तैयार मोदी और उनकी सरकार के मंत्रियों ने जिस तरह से यह समझ लिया कि अब वे देश में कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हो चुके हैं संभवतः उस बात की खुमारी अब उनके दिल से धीरे धीरे कम हो रही है क्योंकि संसदीय लोकतंत्र में सत्ता हासिल करने से अधिक महत्वपूर्ण सत्ता को चलाने के लिए विपक्षी दलों के साथ सामंजस्य बिठाना अधिक कारगर साबित होता है. मोदी के गुजरात के अनुभव ने उन्हें दूसरों की शक्ति को सदैव कमतर ही समझने की भूल में जीने की प्रेरणा दी थी जो कि आज की परिस्थितियों में उनके लिए परेशानी का कारण बन रही हैं अपने विपक्षियों को अपनी पार्टी भाजपा और विपक्षी दलों में कोई महत्व न देने की मोदी की नीति आज उन पर बहुत भारी पड़ती हुई दिखाई दे रही है क्योंकि भले ही वे किसी भी मंशा से अच्छे काम करने की कोशिशें करें पर उन्हें सदन के अंदर और बाहर सत्ता के केन्द्रों के साथ विपक्षियों की बातों का सम्मान भी करना सीखना ही होगा.
                                  भाजपा के वरिष्ठ लोगों को सत्ता से दूर रखने की मंशा आज मोदी के अनुभवहीन मंत्रियों के अजीब से तर्कों और बचावों के रूप में सामने आ रही है क्योंकि जिन वरिष्ठों को विभिन्न कारणों से सत्ता के गलियारों से मोदी-शाह की जोड़ी ने दूर रखने की कोशिश की है वे अपने लम्बे राजनैतिक जीवन के कारण सभी दलों के लोगों में सम्माननीय हैं और उनके सामने अन्य दलों के नेता भी शिष्टाचार को कभी भी आसानी से लांघते हुए नहीं देखे जाते हैं तो उनकी कमी को पूरा करने के लिए आज मोदी के पास कोई विकल्प भी नहीं है. सुषमा स्वराज को यदि संसदीय कार्य मंत्रालय दिया जाता तो संभवतः सरकार के लिए सदन में फ्लोर मनेगमेंट बहुत आसान हो जाता क्योंकि उनकी शैली और जानकारी सामने वाले को बहुत सोच समझकर बोलने के लिए दबाव में ला देती है जबकि नायडू को तो सदन के भीतर ही सत्ता पक्ष के लोग भी गंभीरता से नहीं लेते हैं. अब यदि मोदी अपने मंत्रियों से जनवरी २०१६ से कम से कम दो संसदीय क्षेत्रों के दौरे करने और सरकार की उपलब्धियों के बारे में बात करने के लिए जाने की सलाह दे रहे हैं तो इससे यही पता चलता है कि उन्हें इस बात का अंदाज़ा हो चुका है कि अब जनता के बीच उनकी छवि कमज़ोर पड़ने लगी हैं जिसे अविलम्ब सँभालने की आवश्यकता भी है.
                          एक रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण भारत में भी भाजपा का ग्राफ अब तेज़ी से गिरता हुआ दिखाई देता है क्योंकि अभी तक जनता के द्वारा सत्ता छीने जाने के बाद से कांग्रेस भी कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं थी पर संभवतः भाजपा की तरफ से यही चूक हो रही है कि वह जिस कांग्रेस को चुका हुआ मान रही है आज वह फिर से सदन से लेकर सड़कों तक जूझना सीख चुकी है और भले ही तेज़ी से नहीं पर अपनी गति से राहुल गांधी भी जनता से जुड़े मुद्दों पर विभिन्न राज्यों में खुद पार्टी का नेतृत्व करते हुए दिखाई देने लगे हैं. यह स्थिति भाजपा के लिए तब और ख़राब हो जाती है जब उसके कुछ उग्र विचारधारा के सदस्य पार्टी पदाधिकारी और मंत्री भी उग्र हिंदुत्व का पक्ष लेते हुए दिखाई देने लगते हैं. आम शहरी वोटर्स को अपने शहरों में कोई बवाल नहीं चाहिए होता है और १९९२ के बाद देश ने आडवाणी के उभार के समय जो कुछ भी देखा था आज मोदी के विकास की गाड़ी पटरी से उतरने के बाद एक बार फिर से भाजपा और संघ उसी एजेण्डे को आज़माने में लगे हुए हैं यदि बिहार चुनावों में उन्हें सफलता मिल जाती तो उनकी यह प्रयोगशाला बंगाल, असोम से यूपी तक पहुँचने में देर नहीं लगाती पर वोटर्स ने स्थानीय मज़बूत गैर भाजपाई नेताओं के स्थान पर मोदी को प्राथमिकता सिर्फ इसलिए ही नहीं दी क्योंकि वे किसी मोहरे को अपने राज्य का सीएम नहीं देखना चाहते हैं. प्रचार में आगे रहने वाली भाजपा के लिए अब समय आ गया है कि वह ठोस कामों पर भी ध्यान देना शुरू करे.        
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