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मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

जेएनयू - राजनैतिक मजबूरी के विवाद

                                                      देश में कई बार ऐसे काम भी हो जाते हैं जिनको समेटने में लम्बे समय और महत्वपूर्ण ऊर्जा नष्ट हो जाती है देश के प्रतिष्ठित विश्विद्यालय जेएनयू में कुछ लोगों द्वारा पाकिस्तान और अफजल गुरू के समर्थन में लगाये गए नारों से जिस तरह से निपटा जा रहा है वह निश्चित तौर पर ही चिंताजनक है. देश की सरकार के खिलाफ आवाज़ उठाने वालों को देशद्रोहियों की श्रेणी में रखा जाता है जिसके चलते भी सत्ता में बैठे हुए लोग अपने मंतव्यों को पूरा करने के लिए कई बार कानून और संविधान की अपने अनुसार व्याख्या करने की कोशिशें करते हुए भी नज़र आते हैं जिनका कोई मतलब भी नहीं होता है. जेएनयू की तरफ से इस मामले में पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि उसने इस तरह की किसी भी सभा या विरोध प्रदर्शन की अनुमति किसी को भी नहीं दी थी तो पूरे मामले को सरकार द्वारा संवेदनशीलता से निपटने की कोशिश करनी चाहिए थी जबकि उसकी और भाजपा की तरफ से जिस तरह कि उग्र प्रतिक्रियाएं सामने आयीं तो उससे यही लगा कि कहीं न कहीं इस मामले में राजनीति की बहुत संभावनाएं हैं तो भाजपा द्वारा शुरू की गयी राजनीति का विरोध और जेएनयू के समर्थन में अन्य दलों का सामने आना स्वाभाविक ही हो गया था.
                               जेएनयू ने अपने स्तर पर एक जाँच समिति बनायीं थी हालाँकि सभी का उचित प्रतिनिधित्व न होने के कारण उसका भी छात्रों द्वारा विरोध किया गया था पर उसकी रिपोर्ट सामने आने से पहले ही दिल्ली पुलिस ने अज्ञात लोगों के खिलाफ दर्ज़ किये गए मुक़दमें में जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष को हिरासत में लिया फिर उसके खिलाफ राष्ट्रद्रोह का मुक़दमा भी शुरू कर दिया. यहाँ पर महत्वपूर्ण बात यह थी कि जेएनयू की जाँच सामने आने तक दिल्ली पुलिस संदिग्ध लोगों से पूछताछ कर उन्हें पाबंद भी कर सकती थी साथ ही जाँच के आधार पर इस तरह की कार्यवाही आगे भी कर सकती थी. एक तरफ जहाँ भाजपा कांग्रेस को निशाने पर लिए हुए हैं कि वह इस मामले में राजनीति कर रही है तो उसे भी यह नहीं भूलना चाहिए कि कानूनी और सामाजिक रूप से बेहद संवेदनशील इस मामले से उसके द्वारा किस तरह से निपटा गया था ? इस मामले में सभी राजनैतिक दलों को अपने हितों की याद तो है पर उनके हितों को पोषित करते हुए देश का कितना अहित हो रहा है यह देखने की नज़र आज किसी भी राजनैतिक दल के पास नहीं बची है. राष्ट्रवाद का स्वरुप पार्टियों के हितों के अनुसार निर्धारित नहीं किया जा सकता है जबकि हमारे नेताओं और राजनैतिक दलों को यह लगता है कि उनका वाला राष्ट्रवाद ही देश के लिए सबसे अच्छा है.
                              आज सत्ता सँभालने के दो वर्षों के भीतर ही जिस तरह से मोदी का ग्राफ तो ठीक है पर सरकार के प्रदर्शन से देश में निराशा ही है तो हर बार किसी महत्वपूर्ण चुनाव के सामने आने से पहले इस तरह के विवादों को हवा देकर भाजपा द्वारा अपने वोटों को साधने का काम किया जा रहा है. जब एक पक्ष द्वारा राजनीति शुरू हो जाती है तो दूसरा पक्ष भी अपने स्तर से उसमें कूद पड़ता है. आज भाजपा और मोदी सरकार कुछ लोगों द्वारा किये गए इस कृत्य के असली दोषियों को खोजने के स्थान पर विपक्षी दलों को उनका हिमायती साबित करने में लगे हुए हैं जबकि मामला ऐसा नहीं है. कुछ लोगों की हरकतों के चलते जेएनयू के सभी छात्रों के साथ ऐसा व्यवहार किया जा रहा है जैसे वहां से सदैव ही राष्ट्रविरोधी गतिविधियाँ संचालित होती रहती हैं ? क्या आठ हज़ार बच्चों के भविष्य को विभाजनकारी राजनीति के चलते दांव पर लगाया जा सकता है और यह भी समझना चाहिए कि क्या वहां पर केवल भाजपा विरोधी लोग ही रहते हैं ? भाजपा द्वारा पूरे कैंपस को देशद्रोही सिद्ध करने के प्रयासों के विरोध में यदि अन्य दल अपने स्तर से प्रयास करते हैं तो उसका विरोध क्या कहा जा सकता है कांग्रेस और अन्य दलों से भी इस मामले पर संवेदनशीलता से व्यवहार करने की अपेक्षा देश रखता है.
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