मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

भीड़ तंत्र की अराजकता

                                                      दुनिया भर में सभ्यता और मज़बूत संस्कृति का ढिंढोरा पीटने वाले हमारे भारतीय समाज की तरफ से भी लगातार ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया जाता रहता है जिससे यही लगता है कि हम सब के अंदर गुस्से का जो उबाल मौजूद रहता है वह पता नहीं कब किस मुद्दे पर एक जूनून बनकर सामने आ जाये और बाद में उसके बहुत ही विपरीत प्रभाव दिखाई देने लगें. समूह में इकठ्ठा हुए लोगों द्वारा जिस तरह से अचानक ही अराजकता को अपना लिया जाता है क्या वह किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार किया जा सकता है क्योंकि इधर कुछ दिनों में सामान्य सी घटनाओं पर भी जहाँ विवेक से काम लिया जाना चाहिए हम भारतीय बहुत अराजक होकर खुद ही न्याय करने के घटिया तरीके को अपना लेते हैं जिसके चलते देश की छवि पर बुरा प्रभाव पड़ता है. बंगलुरु में तंज़ानिया की एक छात्रा के साथ निर्दोष होते हुए भी जो व्यवहार किया गया क्या वह हमारी स्वयं ही निर्णायक होने की गलत अवधारणा की तरफ इशारा नहीं करता है क्या इस तरह के किसी भी मामले को अराजकता से बचते हुए सीमित कानूनी दायरे में रहकर निपटाया नहीं जा सकता है ?
                                    सूडान के जिस छात्र की कार से एक सोती हुई महिला की मृत्यु हो गयी उसे किसी भी तरह से सही नहीं कहा जा सकता है क्योंकि कहा जा रहा है कि वह नशे में था और गाड़ी सही तरह से नहीं चला पा रहा था पर उसकी किसी गलती की सजा क्या अफ़्रीकी मूल के किसी भी व्यक्ति को दी जा सकती है या फिर किसी भी उस तरह से दिखने वाले व्यक्ति से इस तरह से बदला लिया जा सकता है ? बंगलुरु पुलिस ने इस ने इस मामले से जिस हल्केपन से निपटा वह भी बहुत चिंताजनक है क्योंकि कुछ विदेशी छात्रों को एक तरह से बंधक बनाये हुई भीड़ से निपटने के लिए उसकी वैन की तरफ से केवल एक सिपाही को मौके पर छोड़कर उसकी तरफ से दोबारा यह जानने की कोशिश भी नहीं की गयी कि घटनास्थल पर क्या हुआ ? कहने को भले ही पुलिस इसे रोडरेज कहे पर यह स्पष्ट रूप से नस्लभेदी हमला ही दिखाई देता है क्योंकि भीड़ ने केवल अफ़्रीकी मूल को ही निशाना बनाया और उनसे हद दर्ज़े की बद्तमीज़ी भी की जिससे यह मामला अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी सुर्ख़ियों में आ गया.
                                                                           उस क्षेत्र में तैनात सभी पुलिसकर्मियों के उस दिन के रोल की जांच कर उन्हें अविलम्ब बंगलुरु से बाहर स्थानांतरित किये जाने के आदेश जारी किये जाने चाहिए भले ही उनका किसी भी तरह का रोल इसमें न रहा हो क्योंकि अपनी आईटी अनुकूल छवि के चलते दुनिया में देश के लिए नाम कमाने वाले बंगलुरु में ऐसे संवेदनहीन अधिकारियों कर्मचारियों की आवश्यकता नहीं है जो शहर, राज्य और देश की छवि की चिंता करने के बारे में स्पष्ट सोच न रखते हों ? भीड़ के रूप में हम पूरे देश में यही करते हैं और पश्चिमी उप्र में तो २०१३ के बाद यह हाल है कि मामूली सी दुर्घटना पर भी नागरिक उसे सांप्रदायिक रूप देने से नहीं चूकते हैं तो क्या इस परिस्थिति में हम आम भारतीय नागरिक इस लायक भी हैं कि इस तरह की सामान्य घटनाओं को पूरे समुदाय के खिलाफ लेने से बच सकें ? आँखें बंद करने से परिस्थितियां बदल नहीं जाती हैं कर्नाटक सरकार को इस मामले में दोषी माना जा सकता है क्योंकि उसकी तरफ से ऐसे अधिकारियों को इस वैश्विक शहर में तैनात नहीं किया गया है जो हर परिस्थिति से निपटने में सक्षम हों. इस पूरे मामले के बाद अब केंद्र और राज्य को इस दिशा में भी कदम उठाते हुए ऐसे शहरों में पुलिस की ट्रेनिंग को और भी सुधारने की कोशिश करनी चाहिए तथा पुलिसिंग से जुड़ी व्यवस्था को इंटरनेट से जोड़ा जाना चाहिए जिससे किसी भी विपरीत परिस्थिति में किसी भी देशी/ विदेशी नागरिक को आवश्यक सुरक्षा प्रदान की जा सके.  
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