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मंगलवार, 17 मई 2016

लक्ष्मण रेखाएं किसकी ?

                                                     देश के राजनेताओं को जनता का समर्थन मिल जाने पर वे जिस तरह का व्यवहार करने लगते हैं उसका सुशासन और देश की समस्याओं से कुछ भी लेना देना नहीं होता है क्योंकि जब लम्बे समय के बाद महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी नेताओं को मिलती है तो उन्हें अधिकतर मामलों में यही लगता है अब वे देश की जनता के हितों के नाम पर कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हो गए हैं जो कि उनकी गलत सोच को ही दर्शाता है. ३० वर्षों बाद पूर्ण बहुमत के साथ जिस तरह से २०१४ में मोदी सरकार ने सत्ता संभाली थी तो उससे पहले उसकी तरफ से लोगों को इतने बड़े बड़े सपने दिखा दिए गए थे कि आज उन के साथ न्याय कर पाना असम्भव सा ही दिखता है. किसी भी देश के लिए ५ वर्ष बहुत कम होते हैं फिर भी कुछ मुद्दों पर मोदी सरकार गम्भीरता से काम कर रही है पर मोदी सरकार में बैठे काम न करने के आदी कुछ नेताओं के चलते आज भी पीएम मोदी की प्राथमिकता वाली योजनाओं की प्रगति का हाल किसी से भी नहीं छिपा है. लोकसभा में पूर्ण बहुमत ने भाजपा के अंदर जिस तरह का दम्भ भर दिया था आज दो वर्षों बाद भी उनके नेता उससे बाहर नहीं आ पा रहे हैं और अपनी कमियों के चलते देशहित के मुद्दों पर ठोस प्रगति न होने का ठीकरा अब उसकी तरफ से दूसरों पर फोड़ने का काम शुरू किया जा चुका है.
                                          संसदीय परम्परा को दुनिया भर में शासन करने का सबसे अच्छा विकल्प माना गया है और संवैधानिक रूप से देश को चलाने के लिए जिन स्तम्भों की बात की गयी है उनमें न्यायपालिका भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जब भी देश की संसद या राजनेता किसी मसले पर निर्णय तक पहुँचने में असफल रही हैं तो न्यायपालिका ने ही उसे सही राह दिखाई है. आज़ादी के बाद से ही विधायिका को अपने काम में न्यायपालिका का किसी भी तरह का दखल अच्छा नहीं लगता है जिससे सरकार के मत से विरोधी कोई भी कडा फैसला आने पर लगभग सभी सरकारें न्यायपालिका को अपनी सीमाओं में रहने की अनावश्यक सलाहें देती ही रहती हैं इसी क्रम में अब न्यायपालिका के हाथों अपनी किरकिरी करवा रही मोदी सरकार के कानूनी जानकर और वरिष्ठतम मंत्री अरुण जेटली न्यायपालिका को उसकी लक्ष्मण रेखाओं की याद दिला रहे हैं जबकि वे यह भूल जाते हैं कि इसी न्यायपालिका के कई फैसलों को लेकर कभी भाजपा कांग्रेस पर हमलावर रहा करती थी और कुछ मसलों पर कांग्रेस के खिलाफ आये निर्णयों को उन्होंने अपने चुनावी हथियारों के रूप में भी खुले तौर पर इस्तेमाल किया था.
                                अगर न्यायपालिका की तरफ से विधायिका से जुड़े मसलों पर भी निर्णय दिए जा रहे हैं तो केंद्र तथा राज्य सरकार सरकारों के साथ सभी दलों के नेताओं को इस पर विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि आखिर वे कौन से कारण बन रहे हैं जिनके चलते सामान्य विधायी कार्यों पर भी कोर्ट्स की टिप्पणियां लगातार आने लगी हैं ? निश्चित तौर पर जिस लक्ष्मण रेखा की बात जेटली कर रहे हैं उसकी अवहेलना विधायिका द्वारा लगातार ही की जा रही है तभी कोर्ट का हस्तक्षेप इन मामलों में बढ़ता ही जा रहा है. जिन मामलों को सही कानूनी स्वरुप देकर देशहित में आगे बढ़ाया जाना चाहिए आज उसके राजनैतिक द्वन्दों में उलझने के चलते ही कोर्ट सक्रिय भूमिका निभाने को मजबूर है क्योंकि जब कोई व्यक्ति या संस्था अपनी समस्या को लेकर कोर्ट में जाते हैं तो उस पर मेरिट के आधार पर सुनवाई करने का अधिकार पूरी तरह से कोर्ट के पास होता है. विधायिका के फेल हो जाने पर यदि कोर्ट इस तरह के मामलों में निर्देश देने को मजबूर हो रहा है तो इस पर संसद और सरकार को ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि सीमाओं का ध्यान सम्भवतः संसद नहीं रख पा रही है जिसके चलते कोर्ट आगे बढ़कर मुद्दों को सुलझाने के लिए निर्णय देने में लगी हुई है.
                              देश और सरकारों को अपनी मर्ज़ी से नहीं चलाया जा सकता है यह बात अब मोदी सरकार को समझनी ही होगी क्योंकि पिछले मनमोहन सरकार की तरफ से भी इसी तरह की गलतियां की गयी थीं जिनका खामियाजा कांग्रेस भुगत रही है. संविधान द्वारा स्थापित की गयी परम्पराओं को जिस तरह से सत्ता और विपक्ष में बैठने पर हमारे देश के राजनैतिक दल अपने हिसाब से परिभाषित करने लगते हैं आज वही सबसे बड़ी समस्या है क्योंकि कभी न्यायपालिका की टिप्पणियों के आधार पर भाजपा कांग्रेस पर हमलावर हुआ करती थी तब कोर्ट उसे देश को बचाने वाली लगा करती थी पर आज वही कोर्ट उसे सरकार के काम में दखल देने वाले रूप में दिखाई देने लगी है. उत्तराखंड में जिस तरह से कोर्ट के द्वारा अपने निर्णय को वापस लेने के लिए मोदी सरकार को मजबूर होना पड़ा उससे देश की छवि को ही बट्टा लगता है तथा इससे कांग्रेस तथा भाजपा के शासन करने में कोई अंतर न होने की बात भी स्पष्ट हो जाती है. सत्ता में बैठकर निरंकुश होना सभी को अच्छा लगता है पर भारतीय संविधान के निर्माताओं ने इस तरह की परिस्थितियों से निपटने के लिए पहले ही पूरी व्यवस्था कर रखी है जो आज भी कारगर है. यदि सरकार स्वयं ही अपनी लक्ष्मण रेखा की मर्यादा को बनाए रखे तो न्यायपालिका को भी खुद को अपनी तरफ से उग्र टिप्पणियों को करने से रोकना ही होगा पर सरकार में बैठे हुए लोग सदैव ही न्यायपालिका पर भी इसी तरह का दबाव बनाने की अनावश्यक कोशिशें करने से बाज़ नहीं आते हैं. नेताओं को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि जजों को वोट नहीं चाहिए होते हैं इसलिए वे अपने स्तर से निर्णय सुनाने में कड़े कदम उठाने से भी नहीं चूकते हैं पर यदि विधायिका अपने स्तर से ही सही ढंग से काम करने की तरफ बढ़ना शुरू करे तो देश में इन लक्ष्मण रेखाओं की बात करने की आवश्यकता ही समाप्त हो जाएगी.     
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