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शनिवार, 7 मई 2016

उत्तराखंड और कानून

                                                                सुप्रीम कोर्ट की तरफ से एक बार फिर से किसी भी सरकार के बहुमत का फैसला केवल सदन के अंदर ही किये जाने की बात पर मोहर लगाए जाने के बाद उत्तराखंड में सभी की निगाहें उन उन छह पीडीएफ विधायकों पर टिक गयी हैं जिनमें उक्रांद के तीन, बसपा के दो और एक निर्दलीय विधायक शामिल हैं. अभी तक पिछले चार वर्षों में पीडीएफ जिस तरह से एकजुट रहा और उसने कांग्रेस का पूरी तरह से समर्थन किया है उसे देखते हुए यह आसानी से समझा जा सकता है कि किसी बड़े दबाव के बिना ये विधायक इस बार भी उसी के साथ रहने वाले हैं. यह भी संभव है कि कांग्रेस के साथ अपने रिश्तों के चलते बसपा के विधायक शायद मायावती के निर्देश पर सरकार के साथ न खड़े हों पर जिस तरह से भाजपा यूपी में बसपा के पिछड़े वोटबैंक पर अगले साल होने वाले विधान सभा चुनावों के लिए नज़रें गड़ाए बैठी है तो उस परिस्थिति में मायावती पडोसी राज्य में भी भाजपा की सरकार को आने नहीं देंगीं. बाकी चार विधायक कांग्रेस के अनुसार आज भी उसके साथ हैं और उन सभी की तरफ से ऐसा कुछ भी नहीं कहा जा रहा है जिससे यह लगे के कांग्रेस को इनका समर्थन नहीं मिलने वाला है.
                        यह बिलकुल सही है कि आज़ादी के बाद से जिस तरह से कभी आवश्यकता पड़ने और कभी केवल विरोधी दल की सरकार को अपदस्थ करने में कांग्रेस ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी तभी एसआर बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट व्यवस्था दे दी थी कि सरकार के बारे में बहुमत का फैसला केवल सदन में ही होना चाहिए जिससे राज्यों में ३५६ का दुरूपयोग काफी हद तक कम हो गया था. इस पूरे प्रकरण में सबसे चिंताजनक बात यही है कि भाजपा ने कई बार इस ३५६ के कारण अपनी सरकारें गंवाई हैं फिर भी सत्ता मिलने पर उसकी तरफ से भी कांग्रेस जैसा व्यवहार किया जाने लगा जिसका कोई औचित्य समझ में नहीं आता है. यदि रावत सरकार के पास संख्या नहीं बची है तो मार्च में ही सदन में इसका फैसला होने देना चाहिए था पर उसके स्थान पर भाजपा ने भी पुरानी स्थापित गलत परंपरा पर ही चलना उचित समझा. यदि भाजपा उत्तराखंड में स्वयं या बागियों की सरकार बनाना चाहती है तो उसके लिए कानूनी रूप से रावत सरकार का जाना भी आवश्यक है सम्भवतः सतपाल महराज के गुट के कॉंग्रेसी विधायकों को तोड़ पाने में असफल रहने पर ही भाजपा ने अब यह कहना शुरू कर दिया है कि वह स्वयं राज्य में सरकार नहीं बनाएगी.
                  संसदीय कानून को जिस तरह से पहले हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट से मज़बूती मिली है वह निर्वाचित केंद्र सरकार के लिए एक बड़ा सबक भी हो सकता है कि राज्यों की निर्वाचित सरकारों को इस तरह से अपदस्थ करने की किसी भी कोशिश का कोर्ट द्वारा किसी भी स्तर पर समर्थन नहीं किया जाने वाला है और यदि कोई सरकार बहुमत खोती है तो उसका निर्णय सदन के अंदर ही किया जाना चाहिए जिससे नयी सरकार के बनने का रास्ता भी साफ़ हो सके. सभी दल राजनीति करने के लिए ही हैं और उनमें से किसी का भी किसी मुद्दे पर यह कहना कि दूसरा दल राजनीति कर रहा है अपने आप में हास्यास्पद ही लगता है इसलिए जनता को मूर्ख न समझा जाये क्योंकि इस देश में लगभग सात दशकों से लोकतंत्र को मज़बूत करने का काम केवल जनता की तरफ से ही किया जा रहा है और राजनेता अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए कभी भी कुछ भी अनर्गल बोलने और करने से नहीं चूकते हैं भले ही वे किसी भी दल से क्यों न आते हों. आशा की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय के बाद उत्तराखंड को एक मज़बूत सरकार मिल जाएगी जो अगले वर्ष होने वाले चुनावों तक राज्य के विकास का काम करती रहेगी. 
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