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रविवार, 8 मई 2016

आतंकी, संदिग्ध, सुरक्षा और संविधान

                                                                 दिल्ली पुलिस द्वारा प्रतिबंधित संगठन जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) के कुछ दिन पहले हिरासत में लिए गए १३ युवकों में से ४ को प्राथमिक पूछताछ के बाद कोई सबूत न मिलने के बाद छोड़ दिया जो कि जाँच की दिशा की सही प्रगति को दिखाता है. पुलिस के अनुसार इन युवकों में बहुत अधिक गुस्सा था और वे इसी के चलते वैचारिक रूप से इस प्रतिबंधित संगठन के साथ जुड़ने के स्तर तक की बात सोचने लगे थे. आज वैश्विक आतंक की जो स्थिति है उसमें जब एक बड़ा परिवर्तन आ चुका है कि पहले यह देखा जाता था कि आर्थिक रूप से परेशान युवकों और परिवारों को अपने जाल में उलझाने के लिए आतंकियों के स्लीपर मॉड्यूल काम किया करते थे पर पिछले कुछ वर्षों में संचार क्रांति के चलते आम लोगों तक सूचनाओं की वैश्विक पैठ हुई जिसके बाद सभी लोगों को हर बात जानने के स्तर तक सूचनाएँ मिलने लगीं. निश्चित तौर पर आतंकी संगठन इस बात पर ध्यान दे रहे थे कि उनके साथ जुड़ने वालों में पूरे विश्व से शिक्षित लोग भी हों जिनका बाद में उपयोग कर वे आमलोगों को यह समझाने का प्रयास कर सकें कि देखो जिहाद की अवधारणा में अब सभी लोग शामिल हैं. पूरे विश्व में जिस तरह से आतंकियों ने अपनी चाल से इस पूरी लड़ाई को इस्लाम बनाम अन्य में बनाने के लिए प्रयास किया उसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए क्योंकि बिना उचित सबूतों के आतंक प्रभावित हर देश में संदिग्ध बताकर लोगों को हिरासत में रखने का चलन बढ़ने लगा जिसके बाद इन जेहादी गुटों का काम और भी आसान हो गया और वे यह कहने लगे कि अब पूरी दुनिया इस्लाम के खिलाफ एकजुट हो रही है.
                                            इस मुद्दे पर यदि भारत की बात की जाये तो हमारे लचर पुलिस और सुरक्षा ढांचे के साथ अभियोजन और जजों की कमी ने भी दोषियों के साथ निर्दोषों को भी अनावश्यक रूप से परेशान करने का काम ही किया है. यह बात पूरी तरह से सही है कि किसी भी आतंकी सम्बन्ध के महसूस होने पर हमारी सुरक्षा एजेंसियां हर उस व्यक्ति को हिरासत में लेने की कोशिश करती हैं जिसे उनके संदिग्ध किसी भी रूप में जानते हों जिसका सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह भी पड़ता है कि जिन चंद लोगों के खिलाफ सबूत खोजे जाने चाहिए उनके स्थान पर भीड़ के लिए सबूत ढूँढ़ने का काम किया जाने लगता है. जब मुख्य मुद्दे से फोकस हट जाता है तो सबूत इकठ्ठा करने की प्रक्रिया का अनुपालन भी नहीं हो पाता है. यह भी पूरी तरह से सच ही है कि हमारी पुलिस, सुरक्षा और ख़ुफ़िया एजेंसियां आज भी नए और आधुनिक तरह से त्वरित ढंग से काम करना नहीं सीखा पायी हैं जिसके चलते बिना मतलब के केवल संदेह के आधार पर ही लोगों को जेलों में रखे जाने की प्रवृत्ति भी बढ़ गयी है. इस ताज़ा मामले में जिस तरह से दिल्ली पुलिस ने इन चार छोड़े गए युवकों के लिए मानसिक चिकित्सक और सलाह की सहायता की व्यवस्था की है वह बिलकुल सही कदम है क्योंकि यदि कोई इन युवकों को भड़का रहा है तो उसके पीछे के कारण खोजे जाने चाहिए तथा उनको दूर करने का प्रयास भी किया जाना चाहिए.
                                    इन चार के बाद जो शेष लोग अभी भी हिरासत में हैं उनके बारे में भी जल्दी से ही सबूतों पर विचार कर निर्दोषों को छोड़ने का काम किया जाना चाहिए जिससे आतंक समर्थक किसी भी स्लीपर मॉड्यूल को यह कहने के अवसर न मिलें कि भारत में मुस्लिम युवकों को अवैध तरीके से हिरासत में रखा जाता है. ख़ुफ़िया एजेंसियों और पुलिस को इस तरह के मामलों से निपटने में विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाना चाहिए और उन्हें यह भी समझाया जाना चाहिए कि ऐसे मामलों में बहुत तेज़ी से अंजाम तक पहुँचाया जाये. केवल संदेह के आधार पर हिरासत में लिए गए लोगों के परिजनों को उनसे मिलने पर किसी भी तरह की पाबन्दी भी नहीं होनी चाहिए जिससे घर वाले भी संतुष्ट रहें कि उनके परिजन पुलिस के पास भी सुरक्षित हैं. किसी दुष्चक्र में फंसकर आतंकियों के हाथों तक पहुँचने वाले युवकों के साथ पुलिस को जानकारी हासिल करने के साथ सहयोग की भावना भी दिखानी चाहिए क्योंकि जो वास्तव में आतंकियों से मिला हुआ होगा उसे छोड़ने पर आतंकी खुद अपने भेद खुलने के डर से मारने से नहीं चूकेंगे इसलिए ऐसे मामलों में पुलिस को बहुत अधिक सावधानी बरतने की आवश्यकता भी है.
                                     हमारी पुलिस को आतंकियों से सम्बन्ध रखने वाले किसी भी केस को सही तरह से सबूतों को इकठ्ठा करने से लगाकर अभियोजित करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए क्योंकि आज पूरे देश में हमारा पुलिस तंत्र अंग्रेज़ों के ज़माने की परंपरा का निर्वहन करने में ही लगा हुआ है. अभी भी ठोस सबूत कैसे इकठ्ठा किये जाते हैं और उनको किस तरह से अभियोजित किया जाना चाहिए इस मामले में हमारी पुलिस पूरी तरह से लचर ही साबित होती है. अब समय आ गया है कि आतंकी गतिविधियों उनके समूहों स्लीपर मॉड्यूलों से निपटने के लिए हर राज्य के युवा पुलिस अधिकारियों की विशेष ट्रेनिंग शुरू की जाये जिससे वे सतही जांचों से आगे बढ़कर वास्तविक सबूतों पर विचार कर सकें तथा सबूतों के अभाव में संदिग्धों को तुरंत रिहा करने का साहस भी दिखा सकें. सबूत मिलने के बाद इन मुक़दमों को सामान्य अदालतों में चलाये जाने के स्थान पर विशेष स्थानों पर ही चलाया जाना चाहिए और यदि संभव हो तो सबूत इकठ्ठा करने के बाद आतंकी गतिविधियों से जुड़े सभी मामले राज्यों की राजधानियों में ही पंजीकृत किये जाने चाहिए जिससे पुलिस के प्रशिक्षित लोग वहां पर अदालती कार्यवाही के लिए पूरा समय देने के लिए उपलब्ध भी हों. संदेह के आधार पर लिए गए लोगों के खिलाफ सबूत इकठ्ठा करने के लिए भी एक समय सीमा होनी चाहिए जिसके बाद उन्हें विशेष निगरानी के साथ घर जाने की अनुमति भी होनी चाहिए क्योंकि इससे आम लोगों में पुलिस और व्यवस्था के प्रति गुस्सा कम होगा जो कि लम्बे समय में देश के लिए अच्छा ही साबित होगा.         
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