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गुरुवार, 4 अक्तूबर 2018

कांग्रेस के यूपी में विकल्प

                                            यूपी में समय समय पर सपा बसपा के साथ चुनाव पूर्व या चुनाव बाद के तालमेल ने जहाँ पूरे राज्य में कांग्रेस को कमज़ोर किया वहीं उसके नेताओं की आरामतलबी के चलते भी राज्य में उसका वोटबैंक लगातार सिमटता चला गया. इस पूरे प्रकरण में यह माना जा रहा था कि राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद यूपी से जुड़े कई बड़े परिवर्तन देखने को मिलेंगें पर अभी तक जिस तरह से पार्टी अपने पुराने ढर्रे पर चल रही है उसको देखते हुए कहीं से भी यह नहीं लगता है कि राज्य में उसकी नीतियों में कोई बड़ा परिवर्तन हुआ है. हो सकता है कि अपने दीर्घकालिक हितों को बचाने के लिए राहुल गाँधी भी यूपी की वर्तमान परिस्थिति में सपा बसपा के छोटे सहयोगी बनने को तैयार हो गए हों पर आने वाले समय में इसका सकारात्मक परिणाम सामने आने की उम्मीद कम ही है. यदि कांग्रेस को भविष्य में अपने लिए केंद्र में मज़बूत भूमिका के साथ यूपी में जड़ें मज़बूत करनी हैं तो उसे अपने उस कोर वोट बैंक पर ध्यान देना होगा जो इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी उसके साथ मज़बूती से खड़ा है.
                                         यह सही है कि समय के साथ अपने को न ढाल पाने के कारण कांग्रेस ने अपनी चुनावी ज़मीन पूरे देश में क्षेत्रीय दलों के हाथों गंवाई है और आज भी उसे संभालने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किये जा रहे हैं जिसका सीधा असर उसकी चुनावी संभावनाओं पर पड़ना तय है. यूपी की राजनीति में अब कांग्रेस को अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करने के बारे में सोचना ही होगा क्योंकि खुद के प्रयासों के बिना दुसरे दलों के साथ तालमेल करने से जहाँ पार्टी के अवसरवादी नेता दुसरे दलों में चले जाते हैं वहीं उसके लिए बरसों से बनी हुई ज़मीन खोने का दुष्प्रभाव भी वोट और सीटों में कमी के रूप में सामने आता है. सपा में नेतृत्व अखिलेश के हाथों में आने के बाद वहां से गंभीर बातों पर विचार शुरू हो चुका है पर मायावती के पास दलित वोटबैंक की जो पूँजी है उसके चलते वे कभी भी कहीं भी किसी को भी ठेंगा दिखाने से नहीं चूकती हैं. इस पूरे प्रकरण में अब कांग्रेस को सबसे पहले उन २२ लोकसभा क्षेत्रों में अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए जहाँ पर २००९ में उसके सांसद थे क्योंकि निश्चित तौर पर आज उसके पास इन क्षेत्रों में कुछ कार्यकर्ता अवश्य होंगें जिनके दम पर वहां वह मुख्य लड़ाई में आने की कोशिशें आसानी से कर सकती है. साथ ही राहुल गाँधी को भी कम से कम एक बार इन क्षेत्रों में प्रचार करना चाहिए जिससे वहां के पूर्व सांसद अपनी स्थिति को २०१९ के लिए मज़बूत कर सकें।
                                      निश्चित तौर पर संयुक्त विपक्ष को यह एहसास हो गया है कि मोदी का जादू निश्चित  कम हुआ है तभी अधिकांश दल अपनी क्षमता से कम सीटों पर भी चुनाव लड़ने के लिए हामी भरते नज़र आ रहे हैं क्योंकि यदि वे किसी भी तरह से एक बार भाजपा को १६०/७० तक सीमित करने में सफल हुए तो भाजपा खुद ही मोदी से उसी तरह पीछा छुड़ाती नज़र आने वाली है जैसे उसने अडवाणी से छुड़ाया है. इस खतरे को अमित शाह भी भांप रहे हैं क्योंकि मोदी के बिना राष्ट्रीय राजनीति में उनकी स्थिति भी समाप्त हो जाने वाली है. ऐसी स्थिति में कांग्रेस को २०१९ को अधिक महत्व न देते हुए भाजपा को कड़ी चुनौती देने के लिए सबसे पहले अपने घर को मज़बूत करना चाहिए क्योंकि कई बार उसके राष्ट्रीय स्वाभाविक विकल्प वाली स्थिति आने पर उसकी उपस्थिति  हर राज्य में दिखाई देनी चाहिए जिससे भाजपा से रूठा मतदाता अपने वोटों को क्षेत्रीय दलों को देने के स्थान पर लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस के पक्ष में डालने के बारे में सोच सकता है. किसी भी क्षेत्रीय दल की राष्ट्रीय संभावनाओं पर कांग्रेस को कभी भी अपने को कमज़ोर नहीं करना चाहिए क्योंकि लोकतंत्र में मज़बूत विपक्ष ही राष्ट्र के लिए उचित होता है पर जब विपक्ष क्षेत्रीय दलों में बंटा हो तो राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर सत्ता पक्ष आसानी से मुद्दों को भटकाने में सफल हो जाता है जिससे उसकी कमज़ोरियों पर किसी का ध्यान भी नहीं जाता है।

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