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गुरुवार, 30 मई 2019

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का संकट-5

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का संकट-4 से आगे........
                                               देश की सबसे पुरानी पार्टी जिसने देश की आज़ादी के लिए लम्बा संघर्ष किया और जिसने आज़ादी के बाद सबसे अधिक समय तक देश की सत्ता संभाली आज उसकी यह स्थिति आ गयी है कि दो लोकसभाओं में उसके पास नेता विरोधी दल का आधिकारिक पद भी नहीं बच रहा है तो उसको अपने पूरे संगठन से लगाकर शीर्ष स्तर पर नीतियां बनाने वाली हर समिति और उसमें शामिल रहने वाले नेताओं पर ध्यान देना ही होगा। यह सही है कि आम कांग्रेस कार्यकर्त्ता नेहरू-गाँधी परिवार को पार्टी में सबसे बड़ा मानता है पर क्या पार्टी में राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय नेता इस बात पर कभी ध्यान देते हैं कि आखिर उनकी जनता पर कितनी पकड़ है? क्या पार्टी में बड़े पदों को संभाल रहे यह लोग जो लम्बे समय तक केंद्र और राज्यों में मंत्री भी रह चुके हैं आज भी अपने को पार्टी के हित में ज़मीन पर उतारने का साहस रखते हैं जिससे उन्हें बदलते भारत और जनता की समस्याओं का सही तरह से आंकलन करने में सहायता मिल सके? क्या सत्ता के आदी हो चुकें नेताओं के लिए पार्टी कोई बड़ी चुनौती देकर उन्हें क्षेत्र में भेजना भी चाहती है या ये सिर्फ दिल्ली में  पार्टी मुख्यालय में सजावटी चेहरे बनकर पार्टी के लिए संघर्ष करने से दूर भागने वालों की एक जमात खडी करना चाहती है ?
                                      इस बार पार्टी की हार को लेकर राहुल गांधी की तरफ से जो कड़ा कदम उठाया जा रहा है उससे कांग्रेस खुद ही सकते में है क्योंकि पार्टी के राहुल से इस्तीफ़ा मांगने की किसी की हिम्मत नहीं होती थी और इस अप्रत्याशित कदम से पार्टी की समझ में नहीं आ रहा है कि वह क्या करे ? राहुल की दूसरी शर्त जो मात्र सूत्रों के माध्यम सामने सामने आ रही है कि उनके परिवार से इतर अध्यक्ष खोजने का काम पार्टी को करना है उससे भी पार्टी को इस अँधेरी सुरंग से बाहर निकलने का रास्ता दिखाई नहीं दे रहा है. संभवतः राहुल पद से दूर रहकर राजनीति में सक्रिय रहने को प्रयासरत हों या हो सकता है कि आने वाले समय में पार्टी की कमान दूसरों के हाथों सौंप वे खुद केवल अपने क्षेत्र की राजनीति पर ही ध्यान देना शुरू करें। अमेठी में उनकी हार से उनका संगठन पर गुस्सा जायज़ भी है क्योंकि पूरे देश में प्रचार करने के लिए व्यस्त होने के चलते उनके पास अपने क्षेत्र के लिए समय कम था पर पार्टी के संगठन द्वारा भी उनको जिस तरह से अँधेरे में रखा गया वह भी अपने आप में बड़ी बात है और पूरे देश में संगठन का यही हाल हुआ पड़ा है यहाँ तक कि जिन तीन राज्यों में नवम्बर १८ के बाद सत्ता मिली है वहां भी संगठन का काम सुस्त या रुका पड़ा है.
                                       कांग्रेस को अपने को फिर से खड़ा करने की कोशिशों कोशिशों में  सबसे पहले उन राज्यों पर नज़र डालनी होगी जहाँ शीर्ष नेतृत्व को गलत सलाह देने के कारण राज्य के मज़बूत नेतृत्व वाले नेताओं ने अपने क्षेत्रीय संगठन बना लिए और आज वे वहां पर कांग्रेस के मुक़ाबले अधिक स्वीकार्य हैं. वाईएसआर कांग्रेस, एनसीपी और तृणमूल कांग्रेस के साथ पार्टी को सम्मानजनक तरह से उनकी राजनैतिक परिस्थितियों को देखते हुए बात करनी चाहिए और उनके साथ किसी ऐसे समझौते पर पहुंचना चाहिए जिससे आने वाले समय में कांग्रेस की विचारधारा के पैरोकार ये दल भी कांग्रेस के सहयोगी बने न कि उसके प्रतिद्वंदी। यह भी निश्चित है कि आने वाले समय में कांग्रेस की विचारधारा से निकले ये दल यदि साथ आते हैं तो पार्टी के लिए मज़बूती का काम किया जा सकेगा।  कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व को अपने उन सलाहकारों से भी पीछा छुड़ाना होगा जिनके चलते ज़मीनी आधार वाले ये नेता अपनी उपेक्षा के चलते पार्टी से अलग हो गए . राहुल अध्यक्ष पद छोड़ते हैं या फिलहाल कार्यकारी अध्यक्ष बने रहते हैं यह सब तो भविष्य के गर्भ में है पर आज भी यदि राष्ट्रीय स्तर पर किसी ने नरेंद्र मोदी के मुक़ाबले अपनी स्वीकार्यता साबित की है वह भी राहुल गाँधी ही हैं. यह कांग्रेस का अंदरूनी मामला है कि वह किसे किस पद पर देखना चाहती है परन्तु यदि राहुल या आने वाले किसी अन्य अध्यक्ष को पार्टी में परिवर्तन करने से रोका जाता है तो अगली बार केरल में भी पार्टी अपनी स्थिति को खोने ही वाली है क्योंकि मोदी-शाह और संघ की प्राथमिकता पर पहले से ही केरल चल रहा है.                    
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