मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 14 मई 2020

मजदूरों की घर वापसी का यथार्थ

                                         कोरोना संकट के चलते देश में मजदूरों को लेकर जिस तरह की अफरा तफरी दिखाई दे रही है क्या उससे कुछ बेहतर तरीके से निपटा जा सकता था आज यह सवाल हर किसी को अपने आप से ही पूछने की आवश्यकता है. देश की आज़ादी के बाद से पहली बार इतनी बड़ी संख्या में दूसरे राज्यों में काम करने वाले मजदूर जिस तरह से देश के स्वर्णिम विकास की खोखली गाथा के साथ बनाये गए राष्ट्रीय राजमागों के हर हिस्से पर आत्मनिर्भरता दिखाते हुए अपने घरों की तरफ बढ़ते ही जा रहे हैं क्या उसे और अच्छी तरह से नहीं किया जा सकता था ? यहाँ सवाल केंद्र और राज्यों की सरकारों की आलोचनाओं का नहीं बल्कि उन गरीब लोगों का है जो सिर्फ बेहतर जीवन और खाने पीने लायक कमा लेने की जुगत में ही अपने घरों से सैकड़ों हज़ारों किमी दूर पहुँच गए थे. आखिर वे कौन से कारण थे जिनको केंद्र ने पूरी तरह अनदेखा किया और तीसरे लॉकडाउन के बाद इन मजदूरों ने अपने घरों की तरफ बिना कुछ विचारे ही कूच कर दिया ? विकसित देशों की कतार में खड़े होने का हमारा सपना किस तरह से चूर चूर होता दिखा आज इस पर कोई चर्चा नहीं हो रही है ?
                                         आज जब महानगरों और औद्योगिक क्षेत्रों में कोरोना ने अपना रूप दिखाना शुरू ही किया है तो उस परिस्थिति में इन प्रवासी मजदूरों को अनमने ढंग से कुछ रेलगाड़ियां चलाकर उनके राज्यों और सम्बंधित जिलों में भेजने की आधी अधूरी कोशिश की जा चुकी है वह भी अपने आप में बड़ा संकट बन सकती है. केंद्र सरकार ने इस मामले में बेहद हल्का रुख ही अपनाया क्योंकि यदि दो लॉक डाउन के बाद इन मजदूरों को घर भेजने की स्थिति सामने आ सकती थी तो इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों ने किस स्तर पर क्या प्रयास किये आज किसी को भी इस बारे में कोई जानकारी नहीं है. राज्यों में जिन जगहों पर ये मजदूर थे तो वे वहां पर किसी कम्पनी, ठेकेदार आदि के माध्यम से ही पहुंचे थे तो इन लोगों की शुरुवाती ४० दिनों में कोई सूची बनाने का कार्य भी आसानी से किया जा सकता था और सीमित संख्या में रेलगाड़ियां चलाकर इनको चरणबद्ध तरीके से इनके घरों तक भेजने की व्यवस्था आसानी से भी की जा सकती थी पर देश के निर्माण में लगे इन मजदूरों की गिनती आज कोई भी अपने लोगों में नहीं करना चाहता है जिससे इनके और भी दुर्दशा हो रही है.
                                           अब भी समय है कि सरकार देश के विभिन्न हिस्सों में खाली खड़ी रैक्स को बड़े शहरों के स्थान पर कुछ सौ किमी के दायरे में ही चलाकार इन के पैरों में पड़ने वाले छालों पर तरस खाये। क्या ५ ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था का सपना देखने वाला देश कुछ सौ करोड़ रूपये खर्च कर इन लोगों को आसानी से घरों तक सम्मानजनक रूप से भेजने की मूलभूत आवश्यकता को भी पूरा नहीं कर सकता ? यदि सरकार के पास आर्थिक तंगी है तो जनता इन ट्रेनों को चला सकती है केवल एक बार एक खाते का नंबर देने की आवश्यकता है और इन मजदूरों को घरों तक भेजने पर होने वाले खर्च के लिए आम लोग खुलकर मदद दे सकते हैं. भारत सरकार और रेल मंत्रालय को अविलम्ब यह उपाय करना चाहिए जिससे पूरे देश में गरीबों की इस मजबूरी और दुर्दशा को जल्दी से समाप्त किया जा सके.  
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