मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

बुधवार, 16 जून 2010

महिला थानों की हक़ीक़त

देश में भ्रष्टाचार ने किस तरह से अपने पाँव पसार रखे हैं और किसी भी अच्छे काम को किस तरह से पलीता लगाया जाना है इसका ताज़ा उदाहरण सीतापुर जनपद मुख्यालय पर स्थापित महिला थाने में देखने को मिला. जनवरी माह में लहरपुर में पढ़ने गयी एक लड़की अगवा की जाती है और उसके बूढ़े माँ बाप स्थानीय पुलिस प्रशासन के आगे मिन्नतें करते रहते हैं पर राजनैतिक दबाव के कारण स्थानीय तंत्र चुप्पी साध लेता है, बूढ़े माँ बाप के पास कोई चारा नहीं बचता है और वे राज्य मानवाधिकार आयोग में इस बात की शिकायत करते हैं. मई माह में आयोग से जिलाधिकारी सीतापुर को आदेश दिया जाता है कि स्थानीय प्रशासन की मदद के बिना लड़की को बरामद किया जाये. सदर कोतवाली पुलिस लड़की को बरामद कर लेती है और यहीं से उसकी एक नयी कहानी शुरू हो जाती है.
          महिला थाने में लड़की को पांच दिनों तक बैठाये रखा जाता है और उसके घर वाले जो खाना लेकर आते हैं वो भी उसे खाने नहीं दिया जाता है. सोमवार को जब कुछ पत्रकारों को नागरिकों द्वारा मामला बताया जाता है तो हंगामा होने के डर से पुलिस लड़की को चुपचाप लहरपुर कोतवाली भेज देती है. अब सवाल यह उठता है कि क्या महिला थाने इसीलिए खोले गए थे कि महिलाओं और लड़कियों को इसी तरह से प्रताड़ित किया जाये ? यह व्यवस्था आख़िर किस तरह से सफल होगी जब उसके रखवालों का ऐसा रवैया है ? इससे तो अच्छा होता कि यहाँ पर महिला थाना नहीं होता तो कम से कम पुलिस अपने काम को जल्दी निपटाने का प्रयास करती. आखिर किस तरह से बिना कोई कारण बताये किसी निर्दोष को थाने में बैठा कर इस तरह से मानसिक यातना दी जा सकती है ? क्या महिल थाने में तैनात कर्मी यह भूल जाती हैं कि वे भी महिला हैं और उनके घरों में भी महिलाएं हैं ? जिसके साथ वे इतना अमानवीय कार्य कर रही हैं वे भी किसी की बेटी हैं ?
      पर शायद पुलिस में आते ही अधिकांश लोगों में मानवीयता मर ही जाती है तभी तो इस तरह से इतना ख़राब व्यवहार देखने को मिलता है ? आज सोचने का विषय यह है कि आखिर ये थाने जिन पर सरकार ने इतने पैसे और संसाधन लुटाये हैं किसकी सहायता कर रहे हैं ? इस सारे प्रकरण में सबसे दुखद बात यह है कि अभी कुछ दिन पहले एक लखनऊ से आये एक उच्च पुलिस अधिकारी के दौरे के समय भी महिला थाने में बिना लिखा पढ़ी के कुछ महिलाओं को बैठाया गया था जिस पर उन्होंने नाराज़गी भी जताई थी. अब इसे सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य कि आज सीतापुर पुलिस की कमान ददुआ जैसे दुर्दांत अपराधी को मारने वाली एसटीएफ टीम का हिस्सा रहे आईपीएस अधिकारी अमिताभ यश जैसे तेज़ तर्रार अधिकारी के हाथों में होने के बाद भी यह दिन देखना पड़ रहा है. राजनैतिक हस्तक्षेप किस तरह से क्या कर सकता है यह इसका उदाहरण मात्र है. समाज में समता की बात करने वाली सरकार में महिला मुखिया होने के बाद राजधानी से मात्र ९० किमी दूर महिलाओं की यह दशा है तो प्रदेश के दूर दराज़ क्षेत्रों में क्या हो रहा होगा इसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है.              

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4 टिप्‍पणियां:

  1. तो महिला थानों से आपने क्या उम्मीद लगा रखी थी..

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  2. सब तरफ यही हाल है जब तक हमारा नैतिक आचरण नही सुधरता तब तक यही होता रहेगा। आभार्

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  3. केवल महिला थाना ही क्यों, देश में कोई भी सरकारी कार्यालय बिलकुल इसी तर्ज पर चलता है. देश के सारे सरकारी कार्यालय केवल उसी का काम करते है जिससे या तो उनकी नस दबती है या जेब गरम होती है.

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  4. अपराध करते समय कभी भी यह भाव नहीं रहता है कि मैं पुरुष हूं तो पुरूष पर अत्‍याचार न करूं और महिला हूं तो महिला पर। देश में नौकरशाही की यही स्थिति है, जब तक जनता अपने गैरवाजिब काम कराने इनके पास जाती रहेगी यह सबकुछ ऐसा ही चलेगा।

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