मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 24 मई 2012

पेट्रोल की आग

         संसद सत्र के समाप्त होने के साथ ही पेट्रोल के दामों में बढ़ोत्तरी के लिए तैयार बैठी केंद्र सरकार ने इस फैसले को लेने में २४ घंटे भी नहीं लिए और सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कम्पनियों बढ़ते हुए घाटे को पूरा करने के लिए अनुमति दे ही दी. यहाँ पर सवाल यह नहीं है कि आख़िर इस मामले में सरकार के पास किस तरह के और कितने विकल्प ही बचे हुए हैं जिससे वह इन तेल कम्पनियों को बचाए रख सके बल्कि उससे बड़ा सवाल यह है कि आख़िर कब तक किसी भी सरकार को इन सब बातों के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जायेगा ? हमेशा की तरह इस बार भी इस मसले पर राजनीति पूरी तरह से गर्माने वाली ही है क्योंकि कोई भी दल यह नहीं चाहेगा कि तेल के दामों में इतनी बढ़ोत्तरी का लाभ राजनीति करने में न उठाया जाये जबकि वास्तविकता सभी जानते हैं कि इस तरह से घाटे के सार्वजनिक उपक्रमों को अब सरकारें अधिक दिनों तक नहीं चला सकती है फिर भी राजनीति के लिए इस तरह के अच्छा काम करने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को दीवालिया कर देने की राजनैतिक दलों की मंशा से किसी भी तरह से सहमति नहीं जताई जा सकती है. 
             आज के समय में जिस तरह से देश की ८० % आपूर्ति आयात से पूरी की जाती है और रूपये के मुकाबले लगातार मज़बूत होते जा रहे डॉलर के कारण भी आयात किये जाने वाले इस बिल पर भारी बोझ पड़ रहा है तो कोई भी सरकार इस तरह की स्थिति में आख़िर क्या कर सकती है ? जिस तरह से हर तरह के आर्थिक सुधारों के विरोध में सरकार के कुछ समर्थक दल और विपक्षी अपना राग अलापने लगते हैं उस स्थिति में इस सरकार के आर्थिक परिदृश्य को सुधारने के लिए आख़िर कितने विकल्प शेष बचते हैं ? देश में बहुत सारे अन्य मसले हैं जिन पर खुलकर राजनीति की जा सकती है पर जिस तरह से असली मुद्दों को किनारे करके कुछ लोक लुभावन मुद्दों पर ही सभी दल अपने हितों को सुरक्षित करना चाहते हैं वह लम्बे समय में देश की आर्थिक सेहत के लिए बहुत बुरी साबित होने वाली है. देश इस तरह की घटिया राजनीति के कारण उस तेज़ी के साथ आर्थिक विकास नहीं कर पा रहा है जिसका वह हक़दार है और चिंता की बात यह है कि इस हमारा राजनैतिक तंत्र ही रोक रहा है.
       मंहगे पेट्रोल को खरीद कर कम दामों पर बेचते हुए भी किस तरह से सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कम्पनियों की सेहत बचायी जा सकती है अगर इस बारे में विरोध करने वाले दलों के पास कोई उपाय है तो उन्हें उसे संसद में बहस के दौरान रखना चाहिए जिससे सरकार भी उन पर अमल कर सके और उसका लाभ देश की जनता तक पहुंचा सके पर यहाँ पर विरोध तो केवल विरोध करने की खाना पूरी करने के लिए ही है ? देश की जनता को भी अब यह समझना ही होगा कि आने वाले समय में उसे उचित दामों में तेल मिलता रहे तो उसे इसकी बाज़ार द्वारा निर्धारित की गयी कीमत देने की आदत भी डाल लेनी चाहिए वरना वह दिन दूर नहीं है जब ये तेल कम्पनियां दीवालिया हो जायेंगीं और जनता बिना किसी चूं-चपड़ के मंहगा पेट्रोल खरीदने को मजबूर हो जाएगी. इस तरह के खोखले विरोध से अब कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है और देश के दलों को वास्तविक स्थिति स्वीकार करते हुए इस तरह के आवश्यक मसलों पर राजनीति करनी बंद कर देनी चाहिए वरना कल को उन पर यह आरोप भी लगेंगें कि उन्होंने कुछ समय तक सस्ता पेट्रोल देकर हमेशा के लिए इसे बड़े उद्योगपतियों के हवाले कर दिया है और तब कोई सरकार इस स्थिति को वापस ला पाने की स्थिति में नहीं होगी.       
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