मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

चुनाव आयोग का क़दम

                                   चुनाव आयोग ने जिस तरह से २१७१ प्रत्याशियों की सूची जारी कर उनके अगले ३ वर्षों तक चुनाव लड़ने पर रोक लगाई है उससे यही लगता है कि आयोग अपने सुधारात्मक क़दमों से देश के चुनावी परिदृश्य को पूरी तरह से सुधारने में लगातार तत्पर है. इस तरह के उपायों का वैसे तो कोई खास असर नहीं पड़ने वाला है क्योंकि जिस तरह से इन लोगों के चुनाव लड़ने पर केवल ३ वर्षों की ही रोक वर्तमान कानून में लगाई जा सकती है वही किया गया है पर इसके स्थान पर इस तरह के प्रत्याशियों पर कम से कम १० वर्ष की रोक लगाए जाने का प्रावधान होना चाहिए क्योंकि आम तौर पर लोकसभा या विधान सभा चुनाव ५ वर्षों के अंतराल पर ही होते हैं और उससे इन प्रत्याशियों के फिर से चुनाव लड़ने की संभावनाओं पर रोक लगाने की मंशा पर पूरी तरह से पानी फिर जाता है क्योंकि जब तक यह दंडात्मक क़दम उनके राजनैतिक भविष्य पर ख़तरा बनकर सामने नहीं आएंगें तब तक किसी भी दल और निर्दलीय नेताओं द्वारा आयोग के इन क़दमों को हल्का मानकर इसका उल्लंघन किया जाता रहेगा.
               यह सही है कि देश की चुनावी व्यवस्था में अभी भी बहुत सारी कमियां हैं पर उन्हें किसी जादू के तहत कदम से तो ठीक नहीं किया जा सकता है फिर भी १९५१ के जन प्रतिनिधित्व कानून में अब बहुत बड़े स्तर पर संशोधन करने का समय अब आ ही गया है क्योंकि जब तक कानून में कड़ाई नहीं होगी तब तक किसी भी कानून को पूरी तरह से लागू करवा पाना भी आसान नहीं होगा. देश में अब इस बात पर ही अधिक ध्यान देने की ज़रुरत है कि जो भी कानून आज की परिस्थितियों के अनुसार खरे नहीं उतर रहे हैं उन्हें तुरंत ही बदलने के बारे में सोचा जाना चाहिए क्योंकि जब तक ऐसा नहीं किया जायेगा तब तक कानून का भय नहीं बन पाएगा और किसी भी परिस्थिति में कोई भी आयोग किसी तरह से सख्त क़दम उठाने के बारे में सोच कर ही रह जायेगा. देश को कानून में संशोधनों की आवश्यकता है क्योंकि जब तक इस तरह से सोचकर काम नहीं किये जाएंगें तब तक किसी भी प्रयास से सुधार नहीं लाया जा सकता है.
               यहाँ पर सवाल यह भी उठता है कि आख़िर इन कानूनों को किस हद तक सुधार की ज़रुरत है और क्या राजनेता अपने ख़िलाफ़ जाने वाले किसी भी कानून को आसानी से पारित होने देंगें ? शायद यही कारण है कि आज बहुत सारे वोट बटोरने से जुड़े मुद्दों पर सभी एक जुट होकर साथ में आ जाते हैं और अपने ख़िलाफ़ जाने वाले किसी भी मसले पर कोई निर्णय ही नहीं लेना चाहते हैं. १९५१ में जब यह कानून बनाया गया था तब देश के राजनैतिक चरित्र में शुचिता, ईमानदारी और सेवा की भावना अधिक हुआ करती थी पर आज के परिदृश्य में यह सब पूरी तरह से उलट चुका है और आने वाले समय में राजनेता अपने लिए कोई भी ऐसा कानून नहीं बनाना चाहते हैं जिससे उनके लिए कोई समस्या खड़ी हो जाए ? इस कानून में सही और पूरी जानकारियां न देने वाले प्रत्याशियों पर कम से कम १० वर्ष तक चुनाव लड़ने की रोक के साथ निर्दलीयों के लिए भी कड़े प्रावधान होने चाहिए क्योंकि कई बार इन निर्दलीयों की अधिक संख्या हो जाने के कारण भी आयोग को अतिरिक्त प्रबंध करने पड़ते हैं. अब सही दिशा में चुनाव सुधारों के लिए आयोग को और कड़े कानून की आवश्यकता है जिसे नेता देना नहीं चाहते हैं.         
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3 टिप्‍पणियां:

  1. 3 साल की रोक का कोई मतलब ही नहीं है. यह निरर्थक है

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  2. सही कहा 3 साल का प्रतिबंध उचित नहीं है, ये कम-से-कम 7 साल तो होना ही चाहिए।

    कृपया इस जानकारी को भी पढ़े :- इंटरनेट सर्फ़िंग के कुछ टिप्स।

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  3. प्रतिबन्ध अगले २ चुनाव तक होना चाहिए ... न की समय सीमा तक ...

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