संविधान ने देश के हर राजनैतिक दल को यह शक्ति दी हुई है कि वह सत्ता में आने के बाद विधि के अनुरूप शासन चलाने में कोई कोताही न बरते और राज्य तथा देश को प्रगति के मार्ग पर आगे बढाने का काम निरन्तर करता रहे पर जिस तरह से आज पूरे देश में विधि (कानून) के स्थान पर अपनी ही विधि (तरीक़े) से सरकारों को चलाया जाने लगा है उससे यही लगता है कि संविधान की शपथ लेकर शासन करने वाले अधिकांश नेता आज देश में संविधान की धज्जियाँ उड़ाने में कोई चूक नहीं करते हैं. आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्तिपाल के मामले में जिस तरह से यूपी की सरकार अपने कारनामे के कारण घिरती ही जा रही है उससे यही लगता है कि अखिलेश जैसे उच्च शिक्षित लोग भी नेता बनने के बाद पूरी तरह से उसी भंवर में उलझ जाते हैं जहाँ पर जाकर राजनीति का ककहरा सीखने के स्थान पर उन्हें केवल दांव पेंच ही सिखाये जाते हैं ? यह सही है कि कई बार अपनी राजनैतिक मजबूरियों के चलते भी नेताओं को कुछ ऐसे क़दम उठाने पड़ते हैं जिससे उनकी लाचारी या लालच ही दिखाई देता है पर उससे देश और समाज का बहुत बड़ा नुक्सान हो जाया करता है.
गौतम बुद्ध नगर के जिलाधिकारी से मिली रिपोर्ट में जहाँ इस बात का खुलासा हुआ है कि दुर्गा ने विवादित दीवार को गिराने के स्थान पर ग्रामीणों को ही अवैध निर्माण के बारे में समझाया था जिसके बाद उन्होंने खुद ही दीवार गिराई थी उससे यूपी सरकार और विषम परिस्थितियों में फंसने जा रही है क्योंकि वहां पर जिस तरह से तथ्यों की अनदेखी कर एक सपा नेता नरेन्द्र भाटी की मनमानी रिपोर्ट पर दुर्गा का निलंबन किया गया उससे कुछ और ही संदेश मिलते हैं ? यदि दुर्गा को किसी अवैध दीवार को गिराने के कारण बिगड़ने वाले सांप्रदायिक सौहार्द के चलते ही निलंबित किया गया है तो फिर कानून प्रिय अखिलेश सरकार ने उन लोगों के खिलाफ क्या दंडात्मक कार्यवाही की है जिन्होंने इस तरह से रमजान के पवित्र महीने में इस तरह का ग़ैर इस्लामिक कार्य किया ? क्या उन्हें पूरी तरह से शासन ने निर्दोष ही मान लिया है क्योंकि सारी समस्या कि शुरुवात तो वहीं से हुई थी पर शायद अखिलेश सरकार के पास अपने वोट पक्के करने के सामने प्रशासनिक दक्षता कोई मायने नहीं रखती है. क्या इससे पूर्व प्रदेश में कहीं भी सद्भाव बिगाड़ने की इस तरह की कथित कोशिश पर किसी अधिकारी को निलंबित किया गया है ?
यदि सरकार के पास सद्भाव बनाये रखने का यह अचूक नुस्खा आ गया है तो फिर पुराने लखनऊ में उसकी नाक के नीचे ही जिस तरह से शिया समुदाय के जलूस पर सुन्नियों द्वारा हमला किया गया तो क्या उन्होंने लखनऊ में किसी एसडीएम, डीएम या पुलिस अधिकारी को निलंबित किया गया है ? जिन स्थानों पर इस तरह से कुछ उपद्रवी तत्व प्रशासन पर हावी होने की कोशिशें करते रहते हैं और सरकार इस तरह के फ़ैसले लिया करती है तो उससे समाज में क्या संदेश जाता है ? क्या इस तरह से एकतरफ़ा कार्यवाही करके सरकार खुद प्रदेश में राजनैतिक लाभ के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं कराना चाहती है जिससे आने वाले चुनावों में उसके मुस्लिम वोटर्स को इकठ्ठा रखा जा सके ? पर यह मामला चूंकि एक तेज़ तर्रार प्रशासनिक अधिकारी से जुड़ा और उसके साथ हुए अन्याय के कारण सुर्ख़ियों में है तो देश की ताक़तवर आईएएस लॉबी भी इसे आसानी से नहीं छोड़ने वाली है और मामला अब यूपी से निकल कर दिल्ली में कार्मिक मंत्रालय तक पहुँच गया है जिससे अखिलेश सरकार के साथ काम करने वाले अधिकारीयों के भविष्य में उन्हें मिलने वाले सहयोग की झलक मिल जाती है. इस मसले पर निर्णय कुछ भी हो पर केवल वोटों के लालच में लिए गए इस तरह के फ़ैसलों से समाज में ग़लत संदेश भी जाता है कि यदि किसी समुदाय के पास वोट हैं तो वह किसी लालची नेता को अपने तलवे चाटने पर मजबूर भी कर सकता है ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
गौतम बुद्ध नगर के जिलाधिकारी से मिली रिपोर्ट में जहाँ इस बात का खुलासा हुआ है कि दुर्गा ने विवादित दीवार को गिराने के स्थान पर ग्रामीणों को ही अवैध निर्माण के बारे में समझाया था जिसके बाद उन्होंने खुद ही दीवार गिराई थी उससे यूपी सरकार और विषम परिस्थितियों में फंसने जा रही है क्योंकि वहां पर जिस तरह से तथ्यों की अनदेखी कर एक सपा नेता नरेन्द्र भाटी की मनमानी रिपोर्ट पर दुर्गा का निलंबन किया गया उससे कुछ और ही संदेश मिलते हैं ? यदि दुर्गा को किसी अवैध दीवार को गिराने के कारण बिगड़ने वाले सांप्रदायिक सौहार्द के चलते ही निलंबित किया गया है तो फिर कानून प्रिय अखिलेश सरकार ने उन लोगों के खिलाफ क्या दंडात्मक कार्यवाही की है जिन्होंने इस तरह से रमजान के पवित्र महीने में इस तरह का ग़ैर इस्लामिक कार्य किया ? क्या उन्हें पूरी तरह से शासन ने निर्दोष ही मान लिया है क्योंकि सारी समस्या कि शुरुवात तो वहीं से हुई थी पर शायद अखिलेश सरकार के पास अपने वोट पक्के करने के सामने प्रशासनिक दक्षता कोई मायने नहीं रखती है. क्या इससे पूर्व प्रदेश में कहीं भी सद्भाव बिगाड़ने की इस तरह की कथित कोशिश पर किसी अधिकारी को निलंबित किया गया है ?
यदि सरकार के पास सद्भाव बनाये रखने का यह अचूक नुस्खा आ गया है तो फिर पुराने लखनऊ में उसकी नाक के नीचे ही जिस तरह से शिया समुदाय के जलूस पर सुन्नियों द्वारा हमला किया गया तो क्या उन्होंने लखनऊ में किसी एसडीएम, डीएम या पुलिस अधिकारी को निलंबित किया गया है ? जिन स्थानों पर इस तरह से कुछ उपद्रवी तत्व प्रशासन पर हावी होने की कोशिशें करते रहते हैं और सरकार इस तरह के फ़ैसले लिया करती है तो उससे समाज में क्या संदेश जाता है ? क्या इस तरह से एकतरफ़ा कार्यवाही करके सरकार खुद प्रदेश में राजनैतिक लाभ के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं कराना चाहती है जिससे आने वाले चुनावों में उसके मुस्लिम वोटर्स को इकठ्ठा रखा जा सके ? पर यह मामला चूंकि एक तेज़ तर्रार प्रशासनिक अधिकारी से जुड़ा और उसके साथ हुए अन्याय के कारण सुर्ख़ियों में है तो देश की ताक़तवर आईएएस लॉबी भी इसे आसानी से नहीं छोड़ने वाली है और मामला अब यूपी से निकल कर दिल्ली में कार्मिक मंत्रालय तक पहुँच गया है जिससे अखिलेश सरकार के साथ काम करने वाले अधिकारीयों के भविष्य में उन्हें मिलने वाले सहयोग की झलक मिल जाती है. इस मसले पर निर्णय कुछ भी हो पर केवल वोटों के लालच में लिए गए इस तरह के फ़ैसलों से समाज में ग़लत संदेश भी जाता है कि यदि किसी समुदाय के पास वोट हैं तो वह किसी लालची नेता को अपने तलवे चाटने पर मजबूर भी कर सकता है ?
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