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सोमवार, 16 सितंबर 2013

हिंसा के बाद राजनीति

                                    पश्चिमी उ०प्र० में हुई हिंसा और कर्फ्यू के दौर के बाद जिस तरह से अब राजनीति हावी होती जा रही है उससे यही लगता है कि आने वाले समय में यूपी सरकार की इस तरह की संदिग्ध गतिविधियाँ उसके और सपा के लिए नयी मुश्किलें पैदा करने जा रही हैं. किसी भी सांप्रदायिक हिंसा में कहीं न कहीं से कोई बड़ी ग़लती प्रशासनिक स्तर पर अवश्य ही हुआ करती है पर इस मसले में सरकार के साथ प्रशासनिक अमले ने जितने निकम्मेपन का सबूत दिया है उससे यदि लोगों के मन में सपा सरकार के लिए इतना गुस्सा है कि वे अखिलेश को भी काले झंडे दिखाए और नारेबाजी करें तो उसके निहितार्थ आसानी से समझे जा सकते हैं. आज सपा केवल एक बात की रट लगाये बैठी है कि इस पूरी घटना में भाजपा और अमित शाह का हाथ है यदि राजनीति की दृष्टि से देखा जाये तो कुछ भी असंभव नहीं है पर जब सरकार को ऐसे कोई संकेत मिल रहे थे तो उसने समय रहते भाजपा के उन दोषियों के ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही क्यों नहीं की और जब मामला इतना बिगड़ गया तो भी सपा ने अपने राग को अलापना नहीं छोड़ा ?
                                          अपनी अक्षमता का ठीकरा दूसरों पर फोड़ने से विश्वास बहाली नहीं हो सकती है यह एक ऐसा मौका था जब पहली बार गांवों से इतनी बड़ी संख्या में लोगों द्वारा पलायन किया जा रहा था पर इस पलायन को रोकने के स्थान पर सपा और यूपी सरकार की प्राथमिकता में आगरा अधिवेशन ही था जहाँ से भी आज़म की अनुपस्थिति ने उसकी नीतियों पर इतना बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है कि अब विधान सभा सत्र के उसकी छाया सरकार का पीछा नहीं छोड़ने वाली है ? यदि सपा के आरोप को सही मान भी लिया जाये तो सपा सरकार ने उन स्थानों पर रहने वाले लोगों की सुरक्षा के लिए क्या प्रयास किये शायद उसका कोई उत्तर अब उसके पास भी नहीं है. सपा के गठन के बाद से संभवतः पहली बार सपा को इस तरह की परिस्थिति का सामना करना पड़ रहा है जब उसका परंपरागत वोट बैंक उससे इस कदर बिदका हुआ है कि आने वाले मिशन २०१४ की हवा निकलती हुई दिखाई दे रही है ? केवल सपा के निकम्म्नेपन ने जहाँ उसकी संभावनाओं को क्षीण कर दिया है वहीं दूसरी तरफ़ अजीत सिंह के रालोद के लिए भी बड़ी मुसीबतें खड़ी कर दी हैं क्योंकि जाट मुसलमान गठजोड़ से वे आज तक जितनी आसानी से पश्चिमी यूपी में अपने लिए वोटों का जुगाड़ कर किया करते थे अब वह भी संदेह के घेरे में जा चुका है ?
                                   जब अखिलेश को खुद आगे बढ़कर नेतृत्व करना चाहिए था तब वे मुलायम से सरकार चलाने के नुस्खे पूछते नज़र आये यह एक ऐसा समय था कि यदि वे चाहते तो दंगों पर नियंत्रण करने की अपनी क्षमता को पूरी तरह से प्रदर्शित कर सकते थे और किसी भी स्तर पर अपने लिए प्रदेश की जनता में स्वीकार्यता बढ़ा भी सकते थे पर उन्होंने जिस तरह से सपा के पुराने टोटकों से सरकार को हांकने की कोशिश की उसके नतीजे के रूप में नाराज़ मुस्लिम वोटर और आज़म के सामने आज वे अपने को चौराहे पर ही खड़ा पाते हैं ? क्या पूरी सरकारी मशीनरी और ख़ुफ़िया तंत्र के साथ अखिलेश यह नहीं जान पाए कि कोई माहौल बिगाड़ने की साजिश करने में लगा हुआ है जैसा कि आज उनकी तरफ़ से आरोप लगाया जा रहा है अब भी समस्या यह है कि एक तरफ़ा कार्यवाही करने के स्थान पर उन्हें पुलिस को पूरी छूट देनी चाहिए जिससे किसी भी राजनैतिक दबाव को न मानते हुए वह निष्पक्ष कार्यवाही कर सके पर इतनी बड़ी समस्या से गुज़रने के बाद भी यदि अखिलेश विघटन कारी शक्तियों के मंसूबे पूरे करने में एक तरफ़ा कार्यवाही करके माहौल को सुधरने नहीं देना चाहते हैं तो उसका खामियाज़ा उन्हें आने वाले समय में और भी भुगतना पड़ सकता है ?         

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