देश में जिस तरह से सदैव ही सेना को देश की सुरक्षा से सम्बंधित महत्वपूर्ण मामलों की बैठकों से दूर रखा जाता है और केवल राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी ही मिल जुलकर बड़े फैसले ले लिया करते हैं वह आने वाले समय में देश के लिए कोई अच्छा संकेत साबित नहीं होने वाला है क्योंकि इससे केवल दिल्ली के बड़े बड़े सरकारी भवनों में बैठे हुए नेता अधिकारी ही फैसले ले लिया करते हैं उससे सेना की वास्तविक चुनौतियों का अंदाजा किसी को भी नहीं हो पाता है. कारगिल युद्ध के दौरान सेनाध्यक्ष रहे जनरल वीपी मलिक ने अपनी नयी किताब में जिस तरह से उस संघर्ष के बारे में जानकारियां साझा की हैं उससे तो कम से कम यही पता चलता है कि देश के नेताओं की सोच सामरिक मुद्दों पर कितनी छोटी और संकुचित होती है और वे केवल उन्हीं क्षेत्रों की बातें आँखें मूंदकर मानते हैं जिन पर उनका अपने अनुसार विश्वास होता है भले ही वे कितनी भी भ्रामक सूचना ही क्यों न प्रेषित कर रहे हों और सेना की बातों की किस तरह से अनदेखी भी करते रहते हैं ?
जनरल मलिक ने इसमें स्पष्ट रूप से वाजपेयी के आईबी इनपुट्स पर उस विश्वास पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया है जिन पर भरोसा करके ही उन्होंने कारगिल में पाक सेना की मौजूदगी से सदैव इंकार किया और इसे केवल पाक समर्थित आतंकियों का ही काम माना ? यह सही है कि मनुष्य अपने हिसाब से कुछ लोगों, संस्थाओं और नियमों पर विश्वास किया करता है और सम्भवतः वाजपेयी को सेना के सूत्रों से अधिक अन्य सूत्रों से मिले इनपुट्स पर अधिक भरोसा था जिससे कारगिल की छोटे स्तर पर शुरू हुई घुसपैठ पूरी तरह से युद्ध में बदल गयी थी क्योंकि जनरल मलिक ने यह भी कहा है कि यदि वाजपेयी सरकार यह मान लेती कि इसमें पाक सेना भी शामिल है तो सेना को पूरी कार्यवाही करने की छूट आसानी से मिल सकती थी और वह संघर्ष को इतने बड़े स्तर पर बढ़ने से पहले भी रोक सकती थी पर अब जो हो चूका उसको बदला तो नहीं जा सकता है पर अब आगे के लिए सेना और आईबी के इनपुट्स को एक साथ रखकर उन पर रणनीति बनाने के काम को तो आगे बढ़ाया ही जा सकता है ?
देश में इस तरह की बातों पर पहले भी बहुत बहस हो चुकी है और विभिन्न सरकारों की नीतियों की आलोचना सदैव ही बहुत वर्षों बाद भी होती रहती है पर आज के युग में इंदिरा गांधी जैसे कड़े और त्वरित निर्णय लेने वाले नेताओं का अभाव होता जा रहा है जिससे भी कई बार अजीबो गरीब निर्णय हुआ करते हैं ? वाजपेयी सरकार ने परमाणु विस्फोटों की औपचारिक जानकारी भी अपने स्तर से सेना को नहीं दी यह तो वास्तव में गम्भीर बात है क्योंकि इन बातों का राजनैतिक मसले से अधिक सैन्य मामलों से ही मतलब होता है वैसे डीआरडीओ के सीधे सेना के अंतर्गत आने से सेना को यह जानकारी तो थी ही पर नेताओं के काम करने के ढंग का इससे तो पता ही चलता है. यह सब तब हुआ जब अपने जीवन के कई दशक राजनीति में लगाकर पीएम बनने वाले कथित अनुभवी अटल इस पद पर थे तो आज कल के नेताओं से और क्या आशा की जा सकती है ? इस मसले पर किसी भी तरह की राजनीति करने के स्थान पर अब देश के राजनैतिक तंत्र को देश की रक्षा और सामरिक आवश्यकताओं की पूर्ति की तरफ सोचने और कार्य करने की आवश्यकता है क्योंकि सरकार चाहे जिस भी दल की हो नेताओं की सोच कभी भी नहीं बदल पाती है जो कि देश के लिए चिंता की बात है.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
जनरल मलिक ने इसमें स्पष्ट रूप से वाजपेयी के आईबी इनपुट्स पर उस विश्वास पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया है जिन पर भरोसा करके ही उन्होंने कारगिल में पाक सेना की मौजूदगी से सदैव इंकार किया और इसे केवल पाक समर्थित आतंकियों का ही काम माना ? यह सही है कि मनुष्य अपने हिसाब से कुछ लोगों, संस्थाओं और नियमों पर विश्वास किया करता है और सम्भवतः वाजपेयी को सेना के सूत्रों से अधिक अन्य सूत्रों से मिले इनपुट्स पर अधिक भरोसा था जिससे कारगिल की छोटे स्तर पर शुरू हुई घुसपैठ पूरी तरह से युद्ध में बदल गयी थी क्योंकि जनरल मलिक ने यह भी कहा है कि यदि वाजपेयी सरकार यह मान लेती कि इसमें पाक सेना भी शामिल है तो सेना को पूरी कार्यवाही करने की छूट आसानी से मिल सकती थी और वह संघर्ष को इतने बड़े स्तर पर बढ़ने से पहले भी रोक सकती थी पर अब जो हो चूका उसको बदला तो नहीं जा सकता है पर अब आगे के लिए सेना और आईबी के इनपुट्स को एक साथ रखकर उन पर रणनीति बनाने के काम को तो आगे बढ़ाया ही जा सकता है ?
देश में इस तरह की बातों पर पहले भी बहुत बहस हो चुकी है और विभिन्न सरकारों की नीतियों की आलोचना सदैव ही बहुत वर्षों बाद भी होती रहती है पर आज के युग में इंदिरा गांधी जैसे कड़े और त्वरित निर्णय लेने वाले नेताओं का अभाव होता जा रहा है जिससे भी कई बार अजीबो गरीब निर्णय हुआ करते हैं ? वाजपेयी सरकार ने परमाणु विस्फोटों की औपचारिक जानकारी भी अपने स्तर से सेना को नहीं दी यह तो वास्तव में गम्भीर बात है क्योंकि इन बातों का राजनैतिक मसले से अधिक सैन्य मामलों से ही मतलब होता है वैसे डीआरडीओ के सीधे सेना के अंतर्गत आने से सेना को यह जानकारी तो थी ही पर नेताओं के काम करने के ढंग का इससे तो पता ही चलता है. यह सब तब हुआ जब अपने जीवन के कई दशक राजनीति में लगाकर पीएम बनने वाले कथित अनुभवी अटल इस पद पर थे तो आज कल के नेताओं से और क्या आशा की जा सकती है ? इस मसले पर किसी भी तरह की राजनीति करने के स्थान पर अब देश के राजनैतिक तंत्र को देश की रक्षा और सामरिक आवश्यकताओं की पूर्ति की तरफ सोचने और कार्य करने की आवश्यकता है क्योंकि सरकार चाहे जिस भी दल की हो नेताओं की सोच कभी भी नहीं बदल पाती है जो कि देश के लिए चिंता की बात है.
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