कश्मीर विश्वविद्यालय के नसीम बाग में चल रही विशाल भारद्वाज की फ़िल्म हैदर में जय हिन्द के नारे लगाने और तिरंगा लहराने के एक दृश्य पर जिस तरह से वहाँ के छात्रों ने अनावश्यक रूप से विरोध किया और हिंसा भी की उसका आज के परिवेश में क्या औचित्य हो सकता है ? लगभग २० दिनों से घाटी में अपनी फ़िल्म की कड़ी सुरक्षा में शूटिंग कर रहे भारद्वाज और यूनिट के अन्य सदस्यों के लिए सभी का स्वागत करने की लम्बी चौड़ी बातें करने वाले कश्मीरियों के बारे में यह के बिलकुल नए तरह का ही अनुभव था जिसके बारे में उन्होंने ने सपने में भी नहीं सोचा होगा. यह सही है कि कुछ धार्मिक और राजनैतिक कारणों के साथ आज भी कश्मीर में पाक समर्थकों की अच्छी खासी संख्या है और वे अपनी मानसिकता का प्रदर्शन किये बगैर कभी भी बाज़ नहीं आते हैं पर उसका इस तरह से प्रदर्शन करना कहाँ तक उचित ठहराया जा सकता है जबकि आज की परिस्थितियों में कश्मीर की तरफ देश विदेश के सैलानियों का रुख एक बार फिर से होने लगा है ?
विशाल भारद्वाज जैसे निर्देशकों के घाटी में शूटिंग करने से फ़िल्म उद्योग को भी वहाँ जाकर काम करने का हौसला मिलता क्योंकि विशाल एक ऐसे निर्देशक हैं जो फ़िल्म को यथार्थ से जोड़ने की हर सम्भव कोशिश सदैव ही करते रहते हैं और उनकी यह कोशिश ही उनके फिल्मों को अन्य फिल्मों से अलग भी कर दिया करती है. यदि कुछ दृश्यों के साथ यह फ़िल्म पूरी कर ली जाती तो उसके कश्मीरी परिवेश के माध्यम से मामले को पूरी तरह से दर्शकों और दुनिया के सामने भी रखा जा सकता था पर दुर्भाग्य से कुछ लोगों के दिमाग की गंदगी कश्मीर को इस तरह के सुखद एहसासों से बहुत दूर कर दिया करती है और आने वाले समय के लिए भी कश्मीर में शूटिंग के अन्य अवसरों को हमेशा के लिए ही बंद कर दिया करती है. यदि युवा कश्मीरियों के कुछ हिस्से ने फ़िल्म की शूटिंग रोक दी तो उससे क्या फ़िल्म की पटकथा पर भी कोई असर पड़ने वाला है क्योंकि जब तक फ़िल्म का वह स्वरुप है तो उनके इस कथित विरोध से कश्मीर को क्या हासिल हुआ यह कौन कट्टरपंथी बतायेगा ?
जिन युवाओं को आगे बढ़कर देश के साथ अपनी रफ़्तार को मिलाना चाहिए वे किस तरह की संकीर्णता में उलझे हुए हैं उससे भी उन कश्मीरी युवाओं की मानसिकता का पता चलता है ? मनोरंजन के लिए नाटक, कहानी और फिल्मों का उपयोग किया जाता है और जिस भारतीय फ़िल्म उद्योग का सांकेतिक तौर पर उग्र विरोध घाटी में हुआ वही मानसिकता पाकिस्तान और खाड़ी के इस्लामिक देशों में भारतीय फिल्मों और टीवी जैसा मनोरंजक दूसरा विकल्प आज तक नहीं ढूंढ पायी है क्योंकि पाक में सैटेलाइट चैनेलों पर भारतीय कार्यक्रम दिखाने पर हाल ही में भारी जुर्माना लगाया गया है. क्या कश्मीर में शूटिंग न करने देने से भारतीय फ़िल्म उद्योग का कुछ नुक्सान होने वाला है शायद नहीं पर कश्मीर के पास से इस तरह की घटनाओं से एक बड़ा अवसर सदैव के लिए ख़त्म ही हो जाता है जो कि उसके फ़िल्म उद्योग से मिलने वाले राजस्व पर भी असर डालने वाला साबित हो सकता है. देश के साथ न चलकर कुछ भ्रमित युवा उस पाकिस्तान के साथ खड़े होना चाहते हैं जिसे इसी भारतीय मनोरंजन के प्रसार को रोकने के लिए कुछ भी न कर पाने के बाद जुर्माना लगाना पड़ता है. कला को धर्म में नहीं बाँधा जा सकता है पर यह उन कट्टपंथियों को कभी भी समझ में नहीं आएगा जो अपने को इस्लाम का सच्चा अनुयायी घोषित करके उदारवादियों को हाशिये पर धकेल दिया करते हैं.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
विशाल भारद्वाज जैसे निर्देशकों के घाटी में शूटिंग करने से फ़िल्म उद्योग को भी वहाँ जाकर काम करने का हौसला मिलता क्योंकि विशाल एक ऐसे निर्देशक हैं जो फ़िल्म को यथार्थ से जोड़ने की हर सम्भव कोशिश सदैव ही करते रहते हैं और उनकी यह कोशिश ही उनके फिल्मों को अन्य फिल्मों से अलग भी कर दिया करती है. यदि कुछ दृश्यों के साथ यह फ़िल्म पूरी कर ली जाती तो उसके कश्मीरी परिवेश के माध्यम से मामले को पूरी तरह से दर्शकों और दुनिया के सामने भी रखा जा सकता था पर दुर्भाग्य से कुछ लोगों के दिमाग की गंदगी कश्मीर को इस तरह के सुखद एहसासों से बहुत दूर कर दिया करती है और आने वाले समय के लिए भी कश्मीर में शूटिंग के अन्य अवसरों को हमेशा के लिए ही बंद कर दिया करती है. यदि युवा कश्मीरियों के कुछ हिस्से ने फ़िल्म की शूटिंग रोक दी तो उससे क्या फ़िल्म की पटकथा पर भी कोई असर पड़ने वाला है क्योंकि जब तक फ़िल्म का वह स्वरुप है तो उनके इस कथित विरोध से कश्मीर को क्या हासिल हुआ यह कौन कट्टरपंथी बतायेगा ?
जिन युवाओं को आगे बढ़कर देश के साथ अपनी रफ़्तार को मिलाना चाहिए वे किस तरह की संकीर्णता में उलझे हुए हैं उससे भी उन कश्मीरी युवाओं की मानसिकता का पता चलता है ? मनोरंजन के लिए नाटक, कहानी और फिल्मों का उपयोग किया जाता है और जिस भारतीय फ़िल्म उद्योग का सांकेतिक तौर पर उग्र विरोध घाटी में हुआ वही मानसिकता पाकिस्तान और खाड़ी के इस्लामिक देशों में भारतीय फिल्मों और टीवी जैसा मनोरंजक दूसरा विकल्प आज तक नहीं ढूंढ पायी है क्योंकि पाक में सैटेलाइट चैनेलों पर भारतीय कार्यक्रम दिखाने पर हाल ही में भारी जुर्माना लगाया गया है. क्या कश्मीर में शूटिंग न करने देने से भारतीय फ़िल्म उद्योग का कुछ नुक्सान होने वाला है शायद नहीं पर कश्मीर के पास से इस तरह की घटनाओं से एक बड़ा अवसर सदैव के लिए ख़त्म ही हो जाता है जो कि उसके फ़िल्म उद्योग से मिलने वाले राजस्व पर भी असर डालने वाला साबित हो सकता है. देश के साथ न चलकर कुछ भ्रमित युवा उस पाकिस्तान के साथ खड़े होना चाहते हैं जिसे इसी भारतीय मनोरंजन के प्रसार को रोकने के लिए कुछ भी न कर पाने के बाद जुर्माना लगाना पड़ता है. कला को धर्म में नहीं बाँधा जा सकता है पर यह उन कट्टपंथियों को कभी भी समझ में नहीं आएगा जो अपने को इस्लाम का सच्चा अनुयायी घोषित करके उदारवादियों को हाशिये पर धकेल दिया करते हैं.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें