मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

संसदीय लोकतंत्र और मर्यादा

                                                               देश की संसद से लेकर राज्यों की विधान सभाओं में आजकल अपनी बात कहने के लिए जिस तरह के असंसदीय और शर्मनाक हथकंडो को अपनाया जाने लगा है क्या उससे देश का मान बढ़ता है और इस तरह की हरकतें करने वाले नेताओं के खिलाफ क्या किया जाना चाहिए जिससे भविष्य में किसी भी अप्रिय घटना या आचरण से लोकतंत्र के इन पवित्र स्थानों को निरापद किया जा सके ? तेलंगाना मुद्दे से शुरू हुई मिर्च स्प्रे के बाद से जिस तरह से हर दिन भारतीय नेता सदनों में अपने गिरते हुए आचरण को लगातार प्रस्तुत करते जा रहे हैं उस पर आखिर कब तक पीठासीन अधिकारी या समाज अपनी आँखें बंद किये रख सकता है क्योंकि अंत में इससे देश के सम्मान पर जो धब्बा लग रहा है उसके बारे में कोई भी सोचना ही नहीं चाहता है तथा सरकार केवल अपने विधायी कामों को निपटाने में ही अपनी पीठ ठोंककर संतुष्ट होती दिखायी दे रही है. आज जब लगभग हर जगह पर सीधे प्रसारण की व्यवस्था कर दी गयी है तो उस स्थिति में आखिर इन प्रसिद्धि के भूखे नेताओं को कैसे रोका जाये यह चिंता का विषय है.
                                              संसदीय व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाते रहने के लिए जिस स्तर पर संसदीय कार्य मंत्रालय को सक्रिय रहना चाहिए सम्भवतः उसमें आज कोई कमी आ गयी है क्योंकि इस तरह के हंगामों का कोई मतलब नहीं बनता है जब हर विधेयक और सुझाव विभिन्न स्तरों को पार करने के बाद ही सदन पटल पर रखे जाते हैं. या तो आज के राजनेताओं में पहले जैसी सोच ही नहीं बची है या फिर उनके पास कम समय में प्रसिद्धि प्राप्त करने के लिए हंगामा एक छोटे मार्ग के रूप में आ गया है ? सदन चलाने की जितनी ज़िम्मेदारी केवल सरकार की होती है उतनी ही सदन के हर सदस्य की होती है और अब यह समय आ गया है कि असंसदीय व्यवहार को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाये जिससे आने वाले समय में उस पर चलने वाले किसी भी सदस्य को अविलम्ब सदन की सदसयता के अयोग्य घोषित कर दिया जाये और सदन के सदस्यों को भी यह लगे कि कुछ भी करने पर उनकी सदसयता भी जा सकती है जिससे उन पर दबाव में ही मर्यादों का ध्यान रखने की सोच विकसित हो जायेगी.
                                            कड़े कानून बनाने से अपराध कम नहीं होते बल्कि अपराधियों के हौसले पस्त होते हैं पर सदन में जिस तरह से मर्यादाें को ताक पर रखने की एक नयी घटिया सोच पनपती जा रही है उस स्थिति में किसी को भी किसी भी तरह के विशेषाधिकार की छूट दिया जाना न्याय से मुकरने जैसा ही है क्योंकि किसी भी सदन के सदस्य से कम से कम वो आचरण तो चाहा ही जाना चाहिए जो हम अपने घरों और समाज में सामान्य रूप से करने को प्राथमिकता दिया करते हैं ? किसी भी व्यक्ति को लोकतंत्र के पवित्र स्थानों में इस तरह की हरकतें करने के लिए कैसे छोड़ा जा सकता है जब तक इन पर कठोर दंड के रूप में सदन से निलम्बन, सदस्यता समाप्त होने और कम से कम अगले दस वर्षों तक किसी भी तरह के चुनाव लड़ने पर रोक नहीं लगायी जाती हैं तब तक ये अपने कथित विशेषाधिकारों की ओट में खड़े होकर देश के संविधान और लोकतंत्र के दामन पर अपने अमर्यादित आचरण के काले धब्बे लगाने से नहीं चूकने वाले हैं. इनको यह पता होना ही चाहिए कि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है और इसके हितों और मान सम्मान से खिलवाड़ करने वालों को किसी भी तरह से माफ़ नहीं किया जा सकता है.       
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