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बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

राज्य पुनर्गठन और राजनीति

                                                      देश की बेहद समृद्ध संसाधनों और कठिन भौगलिक क्षेत्रों से घिरी हुई भूमि में जिस तरह से आज़ादी के बाद से ही राज्य सरकारों और केंद्र पर उनके विकास का दायित्व था सम्भवतः उसमें हमने बहुत थोड़े स्तर पर ही सफलता पायी है क्योंकि एक समय में देश पर एकछत्र राज करने वाली कॉंग्रेस ने जब भी प्रारम्भ में कुछ करने की कोशिशें की तब देश के पास संसाधन बहुत ही कम हुआ करते थे और जिस तरह से नेहरू ने बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों को देश के विकास के मंदिर कहा और उनके लिए सीमित संसाधनों में भी धन का आवंटन किया वह देश के लिए एक सुखद समय था. उसके बाद ही देश में कुछ क्षेत्रों में प्रगति करनी शुरू कर दी थी पर दुनिया की जितनी बड़ी आबादी हमारे पास है उसके अनुसार प्रगति चाहने के लिए जितने बड़े पैमाने पर संसाधनों की आवश्यकता थी वह हमारे पास कभी उपलब्ध ही नहीं थे ? कुछ नेताओं द्वारा अपने हितों और अपने क्षेत्रों के संरक्षण में जिस तरह से काम किये गए उससे भी देश के कीमती संसाधन कुछ क्षेत्र विशेष में ही लगते चले गए और अन्य क्षेत्रों की जनता को विकास की किरण भी दिखायी नहीं दी.
                                                      क्षेत्र विशेष के प्रभावशाली नेताओं के कारण ही जब भी लोगों को यह लगा कि उनके क्षेत्र का विकास नहीं हो पा रहा है तो उनके द्वारा अपने लिए अलग राज्य की मांग भी की जाने लगी जिसमें कुछ जगहों पर लोगों को सफलता मिलने पर और भी राज्यों को माँगा जाने लगा जिससे देश में कई बार छोटे राज्यों की मांग भी बलवती होती चली गयी. देश को चलाने के लिए जिस कुशलता की आवश्यकता है आज उसमें कमी और भ्रष्टाचार में बढ़ोत्तरी ने राजनेताओं की तरफ से लोगों का ध्यान हटा दिया है और वे अपने लिए हकों की बातें खुद ही करने लगे हैं पर इस सारे तमाशे में जहाँ राजनीति की कमज़ोरी सामने आयी है वहीं दूसरी तरफ नयी तरह की समस्याएं भी दिखायी देने लगी है. तेलंगाना मुद्दे पर जिस तरह से सीमांध्र और रायलसीमा के लोगों का आक्रोश था उसे देखते हुए राज्य के सांसदों और विधायकों समेत पूरे राजैतिक तंत्र पर इतना दबाव बना कि संसद में दलीय मर्यादा टूट गयी और तेलंगाना के गठन पर सीमांध्र के सभी राजनेता के साथ खड़े हो गए.
                                                      आज क्या देश को एक राज्य पुनर्गठन आयोग की आवश्यकता नहीं है जो देश की आवश्यकताओं पर गहन विचार कर उसके अनुरूप राज्यों के पुनर्गठन के बारे में सोचना शुरू करे क्योंकि राज्यों के छोटे या बड़े होने से कोई अंतर नहीं पड़ता है जब तक नेताओं की सोच सही दिशा में नहीं जाती है. एकदम राज्य के बनाने से जहाँ संसाधनों का झगड़ा चलता ही रहता है वहीं एक क्षेत्र का तो विकास हो जाता है पर दूसरे क्षेत्र की उपेक्षा हो जाती है. राज्यों के पुनर्गठन में नेता किस तरह से मनमानी करते हैं इसका उदाहरण उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में देखा जा सकता है. केवल छत्तीगढ़ को छोड़ दिया जाये तो आज भी झारखण्ड भारतीय राजनीति का दुःस्वप्न बना हुआ है और पहाड़ी राज्य के नाम पर गठित किये गए उत्तराखंड में सारा विकास मैदानी जनपदों में ही हो रहा है ? जब मैदानों के भरोसे ही राज्य को चलाना था तो उत्तराखंड और पश्चिमी यूपी के कुछ और जनपदों को इसमें शामिल करके इसको और अधिक आर्थिक मज़बूती दी जा सकती थी क्योंकि आज भी पहाड़ी लोगों के लिए राज्य की राजधानी गैरसेण में होना एक सपना ही है ? हर दल राज्यों को छोटा करने में एक जैसी गलतियां करने में लगा हुआ है तो फिर एक बार पूरे देश में राज्यों को जनसँख्या और क्षेत्रफल के एक समुचित अनुपात में बांटकर पुनर्गठन आयोग की घोषणा क्यों नहीं कर दी जाती है जिससे सभी को न्याय मिल सके और छोटे बड़े राज्यों का रोना भी बंद हो सके ?    
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