मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 21 मार्च 2014

स्कूली नियम और त्यौहार

                                      बंगलुरु के एक मिशनरी स्कूल की पंद्रह वर्षीय दो लड़कियों ने जिस तरह से स्थानीय झील में कूदकर आत्महत्या की उससे यही लगता है कि हमारा समाज आज किसी ऐसी दिशा की तरफ मुड़ चुका है जिससे वापस लौटकर आना बहुत आवश्यक है. मामले में प्रारंभिक तौर पर जो कुछ भी सामने आ रहा है वह यह है कि स्कूल प्रबंधन ने ७ लड़कियों को विद्यालय में होली खेलने के कारण सजा दी थी जिससे आहत होकर इन लड़कियों ने इतना बड़ा कदम उठा लिया यह बात मौके पर छोड़े गए पत्र से पता चल रही है. इस मामले में पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज़ कर जांच शुरू कर दी है और बंगलुरु के प्रतिष्ठित मिशनरी स्कूल होने के कारण अब चुनावी मौसम में इस पर राजनीति भी शुरू होने की पूरी आशंका है. देश का संविधान सभी को अपने अनुसार जीने का हक़ देता है और यदि किसी कारण से इन लड़कियों ने प्रबंधन के मना करने के बाद भी होली खेली थी तो क्या उन्हें केवल सजा देकर ही सुधारा जा सकता था ? क्या विद्यालय के पास क्या अन्य उपाय नहीं थे जिसने इन लड़कियों को समझाया जा सकता और इस तरह की किसी भी घटना से बचा जाता ?
                                       निश्चित तौर पर विद्यालयों में अनुशासन होना ही चाहिए पर अनुशासन के नाम पर किसी भी तरह की मनमानी को स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि विद्यालयों से ही बच्चे अपने भविष्य की नींव रखते हैं और इस उम्र के बच्चों के मन में आवेग बहुत जल्दी आता है तो क्या उनको सजा देने से पहले इन मनोवैज्ञानिक पहलू पर विचार करने की आवश्यकता नहीं थी ? इस उम्र के बच्चों का मन बहुत ही जल्दी निर्णय ले लेता है जबकि उनके पास सोचने की इतनी शक्ति नहीं होती है कि उनके इस कदम से उनके परिवार मित्रों और समाज पर क्या असर पड़ेगा ? इन बच्चों की मौत से समाज में बढ़ रही सोच और बच्चों के प्रति उपेक्षा स्पष्ट तौर पर दिखायी से रही है क्योंकि जिन सात बच्चों को सजा दी गयी थी उनमें इन दो लड़कियों ने इतना बड़ा कदम उठा लिया. क्या स्कूल में उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षकों और घर के लोगों को उनके स्वाभाव के बारे में कुछ आभास ही नहीं था और क्या उन सातों बच्चों ने आपस में इस विषय पर कोई चर्चा की थी यह बताने के लिए अब केवल बचे हुए पांच बच्चे ही हैं.
                                     आखिर क्या कारण है कि मिशनरी का निरंतर विरोध करने वाले भी अपने बच्चों को इनके स्कूलों में ही पढ़ाना चाहते हैं क्या भारतीय मूल के लोगों में यह इच्छाशक्ति नहीं है कि वे अच्छे और प्रभावी स्कूल खोलकर अपने बच्चों को शिक्षा के साथ नैतिकता का पाठ भी सिखाने की पहल कर सकें ? निसंदेह कोई भी मिशनरी देश को बेहतर शिक्षा देने के लिए जुड़ती हुई दिखायी देती है पर उनके अपने सामाजिक प्रभाव को वे कैसे छोड़ सकती हैं यह भी सोचने का विषय है. गलती चाहे किसी की भी हो पर इस तरह से जिन बच्चों ने बिना सोचे समझे ही इतना बड़ा कदम उठा लिया तो क्या हमें स्कूलों की व्यवस्था के साथ अपने घरों के माहौल पर भी नज़र डालने की आवश्यकता नहीं है ? प्रबंधन ने जिस तरह से पहले मना कर बच्चों को सजा दी उसका समर्थन नहीं किया जा सकता है पर साथ ही बच्चों के इस कदम को भी किसी स्तर पर सही नहीं कहा जा सकता है क्योंकि बच्चों को जो शिक्षा अच्छे स्कूल में मिलनी चाहिए वह नहीं मिल पा रही है भले ही यह स्कूल कितना भी अच्छा क्यों न हो ? इस घटना से सबक लेते हुए अब समय आ गया है कि समाज और विद्यालय अपनी ज़िम्मेदारियों को एक दूसरे पर डालने के स्थान पर इससे निपटने के रास्ते पर सोचना शुरू करें और दोषियों को भी सजा अवश्य ही मिले.                
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