मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 6 मार्च 2014

लोकसभा चुनाव और मुद्दे

                                              लगता है कि देश में होने वाले आम चुनावों में हर बार की तरह इस बार भी सुशासन, विकास और जनता से जुड़े मुद्दे पीछे ही रहने वाले हैं क्योंकि जिस तरह से शुरू में यह लग रहा था कि इस बार भ्रष्टाचार एक बड़ा मुद्दा हो सकता है उसे नेताओं ने अपनी कलाबाजियों से पिछली सीट पर ही धकेल दिया है और आज जिस बेशर्मी के साथ सभी दल अपनी नज़रों से जनता को विकास के सपने दिखा रहे हैं वह हर बार के चुनावों से किसी भी तरह से अलग नहीं कहा जा सकता है. देश में हर स्तर पर फैले हुए भ्रष्टाचार ने जितना नुकसान किया है आज भी उसके बारे में कोई स्पष्ट रूप से कोई आंकलन नहीं कर सकता है और नेताओं के बड़े भ्रष्टाचारों से लगाकर छोटे स्तर तक पनपने वाले इसके स्वरुप पर जब तक ध्यान नहीं दिया जायेगा तब तक देश को आगे बढ़ाने में किसी भी स्तर पर कोई सफलता नहीं मिल सकती है. शोचनीय यह है कि हर दल और हर नेता का भ्रष्टाचार पर अपना एक लगा ही रवैया है क्योंकि जब उन्हें किसी की आवश्यकता है तो वह तुरंत ही दूध का धुला साबित कर दिया जाता है.
                                              इस बार एक बार तो यह लगने ही लगा था कि सम्भवतः संप्रग के लिए भ्रष्टाचार एक बड़ी मुसीबत बनकर सामने आने वाला है पर जिस तरह से अन्य दलों ने उसके नेताओं पर व्यक्तिगत हमले करने शुरू किये और उसके बाद ही नए नए मुद्दे सामने आने लगे और लगभग हर दल के नेता अपनी शिष्टता को छोड़कर अभद्रता पर उतरते हुए नज़र आये. ऐसा नहीं है कि इसके बिना काम नहीं चलाया जा सकता था पर व्यक्तिगत हमले से जहाँ भाषणों में अभद्रता आती है वहीं पूरा मैदान खुल जाने से नेताओं को हमला करने में बहुत कुछ मिलना शुरू हो जाता है. भारतीय लोकतंत्र में आज जिस तरह से परिवारों की राजनीति चल रही है उस पर किसी भी दल को बोलने का कोई हक़ नहीं है क्योंकि यदि ध्यान से देखा जाये तो कुछ नेताओं को छोड़कर लगभग सभी के पूरे पूरे कुनबे राजनीति में ही घुसे हुए हैं. परिवार वाद कभी भी देश में मुद्दा नहीं रहा है क्योंकि लोकतान्त्रिक प्रणाली में वोटों की शक्ति से जीतकर सामने आने वाले चेहरे चाहे कैसे भी हों वे लोकतंत्र में जनता का प्रतिनिधित्व ही किया करते हैं और इस पर ऊँगली उठाने लोकतंत्र की शक्ति को अनदेखा करना ही होगा.
                                            देश की जनता अब कुछ ठोस चाहती है पर एक बार वोट देने के बाद उसके हाथ में कुछ भी शेष नहीं बचता है क्योंकि अगले चुनाव तक उसको उसी सरकार या नेता से काम चलाना ही होता है जो उस पर पिछले चुनाव में शासन करने लायक जनमत पा चुका है भले ही उसका प्रदर्शन कैसा भी क्यों न हो ? नेताओं को अपनी इन्हीं क्षमताओं का अच्छे से पता है तभी वे किसी भी स्तर पर चुनाव सुधारों और चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस बुलाये जाने की सम्भावना पर विचार भी नहीं करना चाहते हैं क्योंकि वे आज ही जनता से हर पांच साल में मिलने वाले सबक को याद नहीं करना चाहते हैं तो यदि उन पर एक तलवार लगातर ही लटकती रहे तो उससे उनकी नींद ही उड़ जायेगी. देश और जनता के सामने आज यही समस्या है कि इन नेताओं के इस तरह के आचरणों से किस तरह से निपटा जाये ? जब तक देश के विकास के लिए एक समयबद्ध कार्यक्रम नहीं बनाया जायेगा और उसे संसद से मंज़ूरी के बाद कड़ाई से लागू करने के साथ हर स्तर पर किसी भी तरह का भ्रष्टाचार होने पर कड़ी सजा का प्रावधान भी नहीं किया जायेगा तब तक विकास की नेताओं की परिभाषा चलती ही रहेगी और देश के साथ जनता का नुकसान भी होता रहेगा.
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