मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

आयोग की सीमायें और नेता

                                                    संभवतः इन चुनावों में पहली बार चुनाव आयोग को नेताओं के जनसभाओं में बोलने से रोकने जैसा कड़ा कदम उठाने को मजबूर हुआ है वैसा करना भारतीय लोकतंत्र की उस गरिमा को बचाये रखने के लिए भी बहुत आवश्यक था जिसे ये नेता हर स्तर पर तार-तार करने में लगे हुए हैं. देश का संविधान किसी भी व्यक्ति को अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता देता है और आने वाले समय में संविधान की तरफ से जो भी छूट नागरिकों को मिलनी चाहिए उनकी रक्षा करने का संकलप भी लेता है पर जिस तरह से हमारे नेता अपने चंद वोटों और कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में बढ़त बनाने के लिए कुछ भी बकवास करने से नहीं चूकते हैं उस परिस्थिति में चुनाव आयोग के पास कितने अधिकार शेष रह जाते हैं यही सोचने का विषय है. आयोग एक संवैधानिक संस्था है और  उसका काम केवल संविधान द्वारा उसे दिए गए कर्तव्यों का निर्वहन करना ही है जिसके लिए उसे बहुत ही सीमित अधिकार दिए गए हैं जिनको भी वह केवल चुनाव के दौरान ही प्रयोग में ला सकता है.
                                                   कुछ भी बोल कर वोट बटोरने की कोशिशों में लगे हुए हमारे नेताओं को रोकने के लिए क्या अब देश में केंद्रीय या राज्य स्तर पर चुनाव के लिए विशेष अदालतें नहीं होनी चाहिए जो इस तरह के मसलों पर तुरंत ही सुनवाई कर केवल एक तरफ़ा फैसला लेने के लिए स्वतंत्र भी हों ? आयोग की सीमाओं को जानते हुए जिस तरह से नेता हरकतें करके आसानी से बच जाया करते हैं उसमें उन्हें दण्डित करने के लिए भी कुछ होना चाहिए या नहीं क्योंकि हर जगह पर हर क्षेत्र में कुछ नियम होते हैं और उस क्षेत्र विशेष के लोग इस बात का पूरा ध्यान भी रखते हैं कि किसी भी स्तर पर नियमों की अवहेलना न होने पाये फिर राजनीति के इस खेल में नेताओं को कुछ भी नियम बनाकर खेलने की अनुमति आखिर कैसे दी जा सकती है ? आयोग का आज़म और शाह को चुनावी सभा करने से प्रतिबंधित करना अपने आप में एक बहुत ही स्वागत योग्य कदम है क्योंकि इससे उन नेताओं पर अब कुछ दबाव भी बन सकता है जो केवल अनर्गल प्रलाप के लिए ही जाने जाते हैं. हमारे नेता स्वयं अपनी सीमायें निर्धारित करने सदैव ही असफल साबित होते रहे हैं तो यह छोटा कदम अपने आप में बहुत ही अच्छा है.
                                                 नेताओं के लिए विशेष चुनावी अदालतों की आवश्यकता इसलिए भी है क्योंकि अधिकांश विवादित मामलों में राज्य में सरकार चला रही पार्टी के नेता ही शामिल रहा करते हैं जिससे चुनाव के बाद पुलिस सरकार के दबाव में अपने काम को काफी ढीला ढाला छोड़ देती है और किसी भी परिस्थिति में कोई सही कदम नहीं उठती है पर यदि विपक्षी दल का नेता हो तो पुलिस की कार्यवाही बहुत तेज़ी से आगे बढ़ती है. इमरान मसूद, अमित शाह, मुलायम सिंह, आज़म खान के बयानों के बाद यूपी में पुलिस ने किस तरह से काम किया यह सभी के सामने है. इमरान चूंकि सपा के बागी थे इसलिए उन पर सख्ती से काम किया गया वर्ना यूपी पुलिस उनको ढूंढ ही नहीं पाती और वे जन सभाओं को सम्बोधित करते रहते ? चुनाव को निष्पक्ष बनाये रखने के लिए अब चुनाव आयोग के पास और अधिकारों की आवश्यकता है जिससे नेता कुछ भी बखेड़ा खड़ा करने आसानी से न बच पाएं. इस मामले में एक संशोधन और भी होना चाहिए कि एक बार आयोग से सजा पाये नेता के दोबारा इस तरह के काम में मिलने पर उसके चुनाव लड़ने और चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने से ही पूरी तरह काम से कम १० वर्षों के लिए रोक लगा दी जानी चाहिए जिससे नेताओं की हरकतों पर आयोग प्रभावी रोक लगा सके.    
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