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मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

दल बदल कानून और चुनाव

                                                         देश में वर्तमान में लागू दलबदल कानून के चुनाव के समय किसी भी तरह से प्रभावी न होने के कारण आज एक बार फिर से नेताओं की निष्ठा पर आम लोगों को और भी अधिक संदेह होने लगा है. अपने आप में अनूठे पर विरोधी दल पर दबाव बनाने के लिए सभी राजनैतिक दल चुनावी मौसम में कुछ न कुछ करते ही रहते हैं और आवश्यकता पड़ने पर बड़े नामों को अपने दल में शामिल कर विरोधियों को झटके दिया करते हैं. देश का जन प्रतिनिधित्व कानून सभी व्यक्तियों, समूहों या राजनैतिक दलों को किसी भी चुनाव लड़ने की योग्यता होने पर मैदान में उतरने की पूरी छूट देता है पर कई बार इस कानून की कुछ कमियों का लाभ उठाकर कुछ राजनैतिक दल कुछ ऐसे कारनामे किया करते हैं जिनसे वे विरोधियों पर अपने और अधिक दबाव बनाने में सफल हो जाएँ. वतर्मान में एक बार चुनावी प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद जिस तरह से उसे किसी भी परिस्थिति में रोका नहीं जा सकता है उसके अपने लाभ और हानियां भी हैं इसी मसले पर चर्चा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका स्वीकार की है.
                                                        यूपी के गौतम बुद्ध नगर के कॉंग्रेस के प्रत्याशी रमेश चंद तोमर द्वारा नामांकन की प्रक्रिया समाप्त होने बाद जिस तरह से मैदान छोड़ा गया उससे जहाँ पूरी लोकतान्त्रिक प्रक्रिया का उपहास भी हुआ है और साथ ही उस कानून का दुरूपयोग भी हुआ है जो यह कहता है कि चुनाव प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद उसे किसी भी परिस्थिति में रोका नहीं जा सकता है. किसी भी पार्टी के किसी प्रत्याशी द्वारा इस तरह से कथित हृदय परिवर्तन करने और क्षेत्र की जनता को धोखा देने की परिस्थिति में इसे किस तरह से सही ठहराया जा सकता है यही विचार करने के लिए एक जनहित याचिका सुप्रीम कोर्ट के समक्ष आयी जिसे स्वीकार कर लिया गया है. यहाँ पर सबसे महत्वपूर्ण यह भी है कि किसी प्रत्याशी द्वारा आज एक जगह से मैदान छोड़ा गया है तो कल को किसी भय या लालच में मुख्य प्रतिद्वंदी दल के नेताओं को इसी तरह से तोडना शुरू भी किया जा सकता है जो कि आज के मज़बूत होते भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत तो नहीं कहा जा सकता है. अब हमारे लोकतंत्र को किस दिशा में आगे बढ़ना है यह राजनेताओं को ही तय करना है.
                                                      इस मसले पर जिस तरह से चुनाव आयोग और रमेश चंद तोमर को प्रतिवादी बनाया गया है उससे सम्भवतः एक नय बहस भी शुरू हो जाये क्योंकि चुनाव आयोग के संवैधानिक महत्व पर कोई उंगली नहीं उठाता है पर इस दुर्लभ मामले में जिस तरह से कोर्ट ने दखल देने के लिए सुनवाई करने का मन बनाया है उससे सम्भवतः कोई कड़ा निर्णय भी इस तरह की हरकतों को रोकने के लिए कोर्ट से जारी कर दिया जाये. अच्छा हो कि इस तरह के मामले में लोकतंत्र का उपहास करने वाले नेताओं और दलों के प्रति भी कठोर रवैया अपनाया जाये क्योंकि आने वाले समय में सभी दल इस तरह की होड़ में लग सकते हैं. तोमर ने यह सब जानकर किया इससे इंकार नहीं किया जा सकता है पर कॉंग्रेस भी इस मसले पर अपने प्रत्याशी चुनने से चूक ही गयी क्योंकि उसने ऐसे दल बदलू पर दांव लगाया जो वापस अपनी पार्टी में चला गया है. चुनावी माहौल में जिस तरह से सभी दल कुछ सीटें जीत जाने की आकांक्षा में इस तरह के हथकंडे सदैव ही अपनाते रहते हैं जिससे कानून की कमज़ोरी देश का ही उपहास किया करती है और बड़े नेताओं को कुछ सीटें मिल जाती हैं ?
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