मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

चुनाव आयोग और ममता

                                  पहले जिस तरह से हर बात में आप के नेता अरविन्द केजरीवाल कानून और संविधान में कमी की बात करके अपनी बात को सही साबित करने की कोशिशें करते रहते थे कुछ इसी तरह की बात चुनाव आयोग के सन्दर्भ में पश्चिम बंगाल की सीएम ममता बनर्जी ने भी कही हैं. यह सही है कि चुनावी माहौल में जिस तरह से पूरा प्रशासन सीधे केंद्रीय चुनाव आयोग के नियंत्रण में आ जाता है उसके बाद केंद्र और राज्यों में बैठे नेताओं की भूमिका केवल आवश्यक विधायी कार्यों को चलाते रहने तक ही सीमित हो जाती है पर ममता ने जिस तरह से अपने यहाँ पर चुनाव आयोग द्वारा सात अधिकारियों के तबादले को बड़ा राजनैतिक और प्रशासनिक मुद्दा बनाने का प्रयास किया उसका कोई औचित्य भी नहीं था. फायर ब्रांड नेता ममता बनर्जी के साथ निश्चित तौर पर बंगाल की जनता मज़बूती के साथ खड़ी है पर उसका मतलब यह तो नहीं निकला जा सकता है कि कहीं से भी कुछ भी अनर्गल प्रलाप कर वे आयोग को कटघरे में खड़ा करने की कोशिशें शुरू कर दें ?
                                    अधिकारियों के मसले पर चुनाव आयोग का आम तौर पर एक जैसा ही रवैया पूरे देश में रहता है कि जब भी किसी अधिकारी के लिए क्षेत्र विशेष से शिकायत की जाती है तो आयोग तीन सुझावों वाले नामों में से किसी एक नाम पर अपनी सहमति दे देता है और राज्य सरकारें भी इसका पूरी तरह से अनुपालन किया करती हैं. बहुत बार इस प्रक्रिया में आयोग कई ऐसे अधिकारियों को भी स्थानांतरित कर देता है जो कर्मठ और संवेदनशील होते हैं आयोग किसी भी तरह के विवाद में पड़ने के स्थान पर अपने स्तर से सामान्य बदलाव कर देने की नीति का ही सदैव अनुपालन किया करता है. ममता जैसे ज़मीन से जुडी हुई नेता ने जिस तरह से चुनाव आयोग पर कॉंग्रेस और भाजपा के दबाव में काम करने की बातें की उनका कोई मतलब भी नहीं निकलता है क्योंकि चुनाव आयोग लगभग ४५ दिनों में ही किसी अधिकारी के बारे में सब कुछ कैसे जान सकता है ? क्या चुनावों को और भी पारदर्शी और निष्पक्ष बनाये जाने के लिए पूरे देश के प्रशासनिक अधिकारियों के बारे में चुनाव आयोग को सब कुछ लगातार पूरे वर्ष नहीं बताना चाहिए जिससे अधिकारियों के राजनैतिक हितों को वह भी समझ सके और केंद्रीय और राज्यों के चुनाव आयोगों में एक राजनैतिक प्रशासनिक सेल भी बनाई जानी चाहिए ?
                                     आज देश में किसी भी संवैधानिक पद पर बैठे हुए व्यक्ति पर नेताओं द्वारा इस तरह के आरोप लगाया जाना सामान्य बात हो चुकी है क्योंकि अब देश में जो पीढ़ी राज कर रही है वह कहीं से यह भी मानती है कि भारतीय संविधान में बहुत सारी कमियां हैं और उनको दुरुस्त किया जाना बहुत आवश्यक है. कमियों को ठीक किया जाये इससे किसी को भी कोई आपत्ति नहीं है पर अनावश्यक रूप से केवल अपने को बड़ा दिखाने के लिए ही इस तरह की हरकतों पर रोक तो लगनी ही चाहिए वरना किसी दिन कोई नेता राष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट पर भी उँगलियाँ उठाने से नहीं चूकेगा. ममता ने अपनी कम जानकारी के चलते यह बात आवेश में कह दी थी पर जब उन्हें वास्तविकता का ज्ञान हुआ तो उन्होंने अपने कदम पीछे खींचने में ही अपनी भलाई समझी जिससे एक अनावश्यक मुद्दा आगे बढ़ने से बच गया. चुनाव आयोग ने जिस तरह से स्प्ष्ट कर दिया था कि उनकी बात न मानने पर राज्य में चुनाव रद्द भी किये जा सकते हैं तो उसके बाद ममता के पास और कोई चारा भी नहीं था. अच्छा हो कि ममता या कोई अन्य नेता अपनी समस्या को इतना बड़ा न कर दें कि उससे निकलें के मार्ग दिखायी देने बंद हो जाएँ.   
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