मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

रविवार, 25 मई 2014

एम्बेसडर - प्रबन्धन, राजनीति और उद्योगनीति

                                           आज़ादी से पहले ही १९४२ में कोलकाता (तब कलकत्ता) के उत्तरपाड़ा स्थित हिंदुस्तान मोटर्स के कारखाने से से निकलने वाली पहली एम्बेसडर कार के उसी प्रतिष्ठित कारखाने में २४ मई २०१४ को कर्मचारियों के लिए अनिश्चितकालीन तालाबंदी की नोटिस लगा दी गयी है. अब जब २६ मई को देश में बेहतर आर्थिक माहौल के उम्मीद के साथ पहली बार भाजपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सत्ता सँभालने जा रही है तो इस तरह की खबर को बेहद निराशाजनक ही कहा जा सकता है क्योंकि इसके साथ ही बंगाल में बनने वाली इस कार और इसके २६०० कर्मचारियों के भविष्य पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा गया है. चाहे जो भी हो पर प्रबंधन द्वारा नयी सरकार के सत्ता सँभालने तक इस बात को रोकने के प्रयास करने चाहिए थे कि शायद उनकी तरफ से इसके पुनर्जीवन के लिए कोई मार्ग खोला जा सके. भारतीय मूल के कार उद्योग के लिए यह एक तरह से चेतावनी भरा समय ही है क्योंकि लगातार गिरते हुए ग्राफ से कई अन्य कंपनियां भी इसी रास्ते पर जा सकती हैं.
                                        इसके निर्माण और तकनीक के साथ जिस तरह से प्रबंधन ने कोई बड़ा प्रयोग करने की बात कभी भी नहीं सोची उस स्थिति में आज के प्रतिस्पर्धी माहौल में इसका टिक पाना केवल सरकारी खरीद पर ही निर्भर रहा करता था और जब सरकारी विभागों में भी इसकी खरीद सीमित होने लगी तो इसको एक दिन यह सब देखना ही था. बंगाल में लाख अच्छाइयां हो सकती हैं पर जिस तरह से श्रमिकों के मामले पर वहां अनावश्यक राजनीति की जाती है उसक असर वहां के पूरे उद्योग जगत पर पड़ा करता है. ऐसा नहीं है कि प्रबंधन ने इसे पुनर्जीवित करने का कोई प्रयास नहीं किया था पर श्रमिक संघों की राजनीति के चलते आज यह कम्पनी अपने २६०० कर्मचारियों के दम पर केवल ६००० करें ही बेच पा रही थी तो इसके चलने का कोई मतलब और तुक भी नहीं बनता था क्योंकि कोई भी कम्पनी यदि व्यवहारिक रूप से अपने को बदल पाने में सक्षम नहीं है तो आज के इस युग में उसका चल पाना बहुत ही कठिन है.
                                        इसके पूरे मामले को बीआईएफआर को संदर्भित किये जाने के बाद कोई प्रगति न हो पाने से भी यही लगता है कि श्रमिक संघों की इस निराशाजनक लड़ाई में एशिया की दूसरी कार पुरानी कार कम्पनी अपना अस्तित्व अब इतिहास में दर्ज़ कराने जा रही है. श्रमिक संघों को भी यह बात समझनी ही होगी कि यदि कम्पनी के वित्तीय और प्रबंधन ढांचे को सुधारने के लिए कोई प्रयास किये जा रहे हैं तो उसका समर्थन किया जाना चाहिए और जिस भी तरह से कम्पनी को बचाया जा सके वैसे हर प्रयास को करना भी चाहिए पर केवल प्रतिष्ठा की लड़ाई में वे आम भारतीय के उस कार के नाम पर उभरने वाली छवि को ख़त्म करने की तरफ बढ़ चुके हैं. राजनीति चाहे वाम दलों की हो या टीएमसी की अब यदि कोलकाता में इस तरह से २६०० लोग एक दम से बेरोज़गार हो रहे हैं तो इसकी पहली ज़िम्मेदारी ममता और दूसरी केंद्र सरकार की नीतियों पर आती है. रोज़गार बढ़ाने के अवसरों के स्थान पर यदि श्रमिक सघों को समझते हुए इस कम्पनी को बचाने का कर्मचारियों की छंटनी समेत कोई भी उपाय शेष हो तो सभी को मिलकर उसे करना ही चाहिए और संयंत्र को लम्बे समय तक चलते रहने लायक नीतियां भी प्रबंधन को बनानी चाहिए पर अभी तो यह सब केवल सपना जैसा ही लग रहा है.      
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