मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 6 मई 2014

पेड न्यूज़- मीडिया, नेता और आयोग

                                                     २००९ के चुनावों से जुड़े एक मामले में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने भी अशोक चवन की याचिका पर स्पष्ट रूप से कहा है कि आयोग को पेड़ न्यूज़ पर कार्यवाही करने का पूरा अधिकार है उससे यही लगता है कि आने वाले समय में नेताओं को इस तरह के मामलों में कोर्ट जाने से पहले सोचने को मजबूर होना पड़ेगा. इस मामले में जिस तरह से अशोक चवन ने पहले हाई कोर्ट में अपनी बात रखी पर वहां से कोई रियायत न मिलने पर वे सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचे जिससे उसने भी स्पष्ट रूप से इस तरह के मामलों में आयोग के अधिकारों की स्पष्ट रूप से पुष्टि ही कर दी है. देश के कानूनों में चुनाव सम्बन्धी अभी भी बहुत सारे ऐसे मसले हैं जिन्हें अभी तक केवल नैतिकता के पैमाने पर ही नापा जा रहा था और यदि कोई नेता कानून के उल्लंघन पर उतर आता है तो आयोग के पास ऐसी शक्तियां हैं ही नहीं कि वह तेज़ी से सुनवाई करते हुए मामले में दोषिर्यों के विरुद्ध कार्यवाही कर सके.
                                                      आज के समय में जिस तरह से मीडिया का प्रभाव पूरे समाज पर बढ़ता ही जा रहा है तो उसका दुरूपयोग भी चुनाव के समय नेता लोगों द्वारा किये जाने की शिकायतें भी सामने आने लगी हैं. इस तरह के मामले को दैनिक सुनवाई के आधार पर ४५ दिनों के भीतर निपटाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश से जहाँ नेताओं पर भारी दबाव आने वाला है वहीं उनकी मीडिया पर दबाव बनाने या अपने मीडिया में मौजूद समर्थकों से मनचाही ख़बरें छपवाने की प्रवृत्ति पर भी रोक लगने वाली है. अभी तक इस तरह के मसले केवल कोर्ट में ही जाया करते थे और उन पर भी सुनवाई राज्य सरकार के रहम पर ही हुआ करती थी पर अब जब कोर्ट ने यह आदेश कर ही दिया है तो आने वाले समय में इस पर प्रभावी रोक लग पाने की संभावनाएं भी दिखाई देने लगी हैं. देश की विधायिका आखिर इतनी कमज़ोर कैसे होती जा रही है कि वह देश को विश्वास में लेने लायक कानून भी नहीं बना सकती है और यदि कहीं से कानून में कोई कमी है तो उसका हर नेता इतना लाभ उठाने की सोच भी कैसे सकता है ?
                                                आज इस बात की बहुत आवश्यकता है कि चुनाव आयोग के पास असीमित अधिकार होने के साथ उनके पूरे वर्ष अनुपालन करवाने की शक्ति भी संविधान द्वारा दी जानी चाहिए क्योंकि जब तक केवल आचार संहिता के समय मिलने वाले अधिकारों के भरोसे आज के घाघ नेताओं से निपटने की कोशिश की जाएगी तब तक चुनावों को निष्पक्ष तरीके से करवाने की हर मंशा अधूरी ही रहने वाली है. अभी तक जिस तरह से कुछ मामलों में कानून न होने के बाद भी परंपरा के रूप में नेता कुछ मर्यादाएं बनाये रखते थे आज के पहली पंक्ति में दिखाई देने वाले नेताओं में वह शील भी गायब ही दिखाई दे रहा है तो उस परिस्थिति में आखिर केवल कानून का सहारा ही तो बचता है कि इस सबसे प्रभावी तौर से निपटा जा सके ? देश को आज नेताओं में मज़बूत संकल्प और उच्च मानदंडों की आवश्यकता है पर कहीं से भी हमारे नेता बिना कानूनी दबाव के इनको स्थापित करने से नहीं चूकते हैं पर सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश के बाद अब मजबूरी में ही सही नेताओं पर दबाव तो बनने ही वाला है.
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