मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 5 जुलाई 2014

कांठ और प्रशासनिक क्षमता

                                           एक बार फिर से वेस्ट यूपी में छोटे से मुद्दे को बड़ा बनाकर पूरे पूरे इलाके को नफरत की आग में झोंकने की साज़िशें रची जाती रहीं और यूपी सरकार ठीक कवाल कांड की तरह इस मामले की गंभीरता को समझ पाने में पूरी तरह से असफल ही साबित हुई. जनाक्रोश किसी भी परिस्थिति को कितना आगे जा सकता है इसका ताज़ा उदाहरण यही घटना है क्योंकि नेताओं द्वारा जिस भी तरह से ऊपरी तौर पर सुलह समझौता करने के प्रयास किये जाते रहे कहीं से भी उसमें क्षेत्रीय जनता का सही प्रतिनिधित्व सामने नहीं आ पाया और इसमें भाजपा सांसद तक पर आरोप लगाते हुए जनता ने उनके भी पुतले फूँक डाले. पूरे घटनाक्रम में सबसे दुखद बात यही है कि सरकार और प्रशासन के साथ ख़ुफ़िया विभाग भी पहले की तरह पूरी तरह से नकारा ही साबित हुआ और पूरा इलका धधकने की कगार पर जा पहुंचा. रेल ट्रैक बाधित होने के साथ डीएम को लगी गंभीर चोटें मामले की गंभीरता को खुद ही बयान करती हैं.
                                         यह भी उतना ही सही है कि किसी भी स्थान पर हज़ारों कि भीड़ से निपट पाने के लिए जिस प्रशासनिक कुशलता और दक्षता की आवश्यकता होती है आज वह यूपी के अधिकारियों में कहीं से भी दिखाई नहीं देती है और हालात कितने ख़राब है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इतने गंभीर मामले से निपटने वाले अधिकारी तक एक दूसरे को नहीं पहचानते हैं इसी क्रम में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक ने कांठ के एसडीएम रहे विजय पाल सिंह को भाजपाई समझ कर पीटना शुरू कर दिया और तहसीलदार के द्वारा डीएम को सूचना दिए जाने पर पुलिस अधीक्षक ने मांफी मांगी. प्रशासन कितना सतर्क है इस बात का अंदाज़ा इससे ही लग जाता है कि मामले को डील करने में लगे हुए अधिकारी तक एक दूसरे को नहीं पहचानते हैं ? इसके लिए कहीं न कहीं यूपी सरकार की तबादला नीति ही ज़िम्मेदार है जिसको यह पता ही नहीं है कि आखिर अधिकारियों का तबादला क्यों किया जा रहा है ?
                                         ऐसा नहीं है कि पहले इस तरह के विवाद नहीं हुआ करते थे पर आज जिस तरह से प्रशासन और पुलिस केवल सत्ताधारी दलों के गुलामों जैसा व्यवहार करने में ही लगे रहते हैं उससे इसी तरह की समस्याएं सामने आती रहती हैं. किसी भी ज़िले में अधिकारी रुक ही नहीं पाते हैं और जब तक उनको अपने क्षेत्र की सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियों का ज्ञान होता है तब तक उनका सामान कहीं और भेजा जा चुका होता है. आज यदि पूरे प्रदेश में पुलिस के सामाजिक रजिस्टर ही चेक कर लिए जाएँ तो कोतवाल और क्षेत्राधिकारी तक को नहीं पता होता है कि क्षेत्र में सामाजिक प्रभाव रखने वाले कौन से लोग हैं ? पुलिस और प्रशासन की इस कमज़ोरी का पता तब चलता है जब कोई समस्या खड़ी हो जाती है और उसको सुलझाने के लिए समाज के प्रभावी लोगों की ज़रुरत पड़ जाती है और उसे पता ही नहीं होता कि वह किसे पकड़ लाये और किससे बात करे जिससे माहौल को सुधारा जा सके ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें