मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

कोयला नीति और नेता

                                                                       सुप्रीम कोर्ट द्वारा एक बार फिर से किसी बड़े मुद्दे पर राजनेताओं द्वारा किये जाने वाले पूरे काम को जिस तरह से कटघरे में खड़ा कर दिया है उससे यही लगता है कि देश के सभी राजनैतिक दल देश के लिए लम्बी अवधि की योजनाएं बनाने के स्थान पर हर मसले के तात्कालिक समाधान की बात तक ही सोच पाते हैं. कोयला मामले में १९९३ के बाद से आवंटित किये गए सभी ब्लॉकों को खामियों से भरा हुआ बताया पर जिस तरह से कोर्ट ने टिप्पणी की है उससे देश की राजनैतिक व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह अवश्य ही लग गया है. उच्चतम न्यायालय ने सोमवार को कहा कि नीलामी व्यवस्था से पहले १९९३ से २०१० के बीच राजग और संप्रग सरकारों द्वारा किए गए कोयला ब्लाकों के सभी आवंटन गैरकानूनी तरीके से तदर्थ और लापरवाही के साथ तथा बगैर दिमाग लगाए किये गये. सुप्रीम कोर्ट कि यह व्यवस्था क्या देश की संसद को अपने द्वारा किये जा रहे कार्यों पर फिर से आत्म विश्लेषण की तरफ नहीं भेजती है जहाँ पर विधायी काम केवल अराजकता की भेंट ही चढ़ जाया करता है ?
                                                         इस मामले में अभी तक सबसे राहत वाली बात यही है कि कोर्ट ने इनके आवंटन को २ जी मामले की तरह एक झटके में निरस्त न करते हुए जिस तरह से उस पर व्यापक सुनवाई की बात की है उससे बीच का कोई रास्ता भी निकाला जा सकता है. क्योंकि यदि पहले ही बिजली के संकट से जूझ रहे देश में इन आवंटनों को रद्द किया गया तो देश के सामने एक अघोषित ऊर्जा संकट भी आ सकता है. कोर्ट ने इस मामले में जिस तरह से यथार्थ को ध्यान में रखते हुए अपनी बात को कहा है अब उस पर व्यापक सुनवाई के बाद ही कुछ निर्णय हो पायेगा पर १९९३ से अब तक नरसिंह राव, अटल बिहारी बाजपाई, एच डी देवेगौड़ा, इन्द्र कुमार गुजराल, अटल बिहारी बाजपाई, मनमोहन सिंह की सरकारें इस बात के लिए पूरी तरह से ज़िम्मेदार हैं इससे कोई इंकार नहीं कर सकता है. यह सही है कि १९९३ में जिस तरह से पहले आओ पहले पाओ की नीति को अपनाया गया था वह तात्कालिक रूप से सही थी पर उसके स्थान पर नेताओं ने व्यापक नीति के बारे में कभी कुछ भी नहीं सोचा ?
                                                      कोर्ट ने अपने आदेश में एक महत्वपूर्ण बात और भी कही है कि जब तक इस मामले की पूरी सुनवाई नहीं हो जाती है तब तक जिन आवंटनों को केवल अल्ट्रा बिजली परियोजनाओं के लिए किया गया था तब तक उसके खनन को उसी परियोजना में लगाने पर सख्ती से चलना होगा जिससे उसका कोई अन्य व्यावसायिक उपयोग न किया जा सके. नेताओं में अपनी सुविधा के अतिरिक्त दिमाग लगाकर निर्णय लेने की क्षमता पर जिस तरह से कोर्ट ने सवाल खड़े किये हैं वे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं क्योंकि दुर्भाग्य से देश नेता नहीं अधिकारियों के माध्यम से चलाया जाता है और हमारे नेता सदन में काम करने के स्थान पर केवल हंगामे को ही प्राथमिकता दिया करते हैं ? अब समय आ गया है कि देश की विधायिका अपनी ज़िम्मेदारी को समझने का नए सिरे से प्रयास करे और सदन में महत्वपूर्ण निर्णयों पर पूरी तरह से सार्थक बहस को भी स्थान दे जिससे सरकार को कुछ करने के लिए समय मिल सके और सदन की गरिमा को बहाल भी किया जा सके.        
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