मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

योजना से नीति तक आयोग का सफरनामा

                                                                    देश में राजनीति करने की दिशा से कोई भी सरकार पीछे नहीं रहना चाहती है अब योजना आयोग के मुद्दे पर जिस तरह से व्यवस्था परिवर्तन को भी राजनैतिक चश्मे से देखा जाने लगा है वह आज के परिदृश्य की राजनीति में सही नहीं कहा जा सकता है. आज़ादी के बाद १९५० से काम करने वाले योजना आयोग की परिकल्पना सबसे पहले सुभाष चन्द्र बोस की तरफ से प्रस्तुत की गयी थी और उनका मानना था कि आज़ादी मिलने के बाद देश को एक ऐसे आयोग या संस्था का गठन करना चाहिए और संभवतः आज़ादी के बाद केंद्र राज्यों में योजना पर बातचीत करने के लिए ही इस योजना आयोग की स्थापना की गयी थी पर आज इसके काम काज को सुधारने के स्थान पर केवल राजनीति के माध्यम से नाम बदलने की कोशिशें की जा रही हैं. यह सही है कि देश की जनता ने भाजपा को स्पष्ट बहुमत दिया है और अब सरकार अपनी तरह से देश चलाने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र भी है पर नीतियों के निर्धारण में लगे हुए लोगों और व्यवस्था को केवल नाम बदलने की कवायद से आगे बढ़कर भी देखा जाना चाहिए.
                                                                                           चालू वित्तीय वर्ष में पी चिदंबरम ने पीएम मनमोहन सिंह की आयोग से सम्बंधित सिफारिशों पर ध्यान देते हुए योजना गत और गैर योजना गत आधार पर राज्यों के लिए धन का आवंटन करना शुरू कर ही दिया था जिसका प्रस्ताव आज मोदी कर रहे हैं. मनमोहन सिंह का आर्थिक मॉडल भारत के लिए आज भी कितना प्रासंगिक है यह इसी बात से पता चलता है कि कल की बैठक में खुद मोदी ने मनमोहन सिंह का उद्धरण प्रस्तुत किया. देश चलाने के लिए आर्थिक नीतियों के बारे में कोई भी राजनेता जितना सोच सकता है मनमोहन सिंह एक विश्व प्रसिद्द अर्थ शास्त्री होने के नाते उससे बहुत अधिक सोच सकते हैं. पिछली सरकार के द्वारा जिस तरह से योजना आयोग की शक्तियों को बजट के माध्यम से कम करने की दिशा में काम करना शुरू कर दिया था अब एक दो वर्ष उसके प्रभाव का अध्ययन करना चाहिए था. इस मामले में पीएम से एक चूक तो हो ही गयी है क्योंकि अभी भी इस बैठक में पंचवर्षीय योजनाओं के बारे में कोई स्पष्ट बात सामने नहीं आई है तो जिन राज्यों को उस योजना के तहत जितना धन मिल रहा था और जो परियोजनाएं अभी चल रही हैं उनके बारे में स्थिति स्पष्ट नहीं हो पायी है.
                                          आर्थिक मामलों में पहले से चल रहे मॉडल को अचानक से बदले जाने से पहले किस तरह से देश के लिए एक वैकल्पिक योजना पर विचार किया जाना चाहिए था क्या इस बात पर भी सरकार ने विचार किया है ? आज एक बार फिर से जापान से वैश्विक मंदी की आहट सुनाई दे रही है तो अपने पुराने ढांचे को विदेशों के भरोसे पूरी तरह से खोल देने की नीति क्या किसी समय समस्या बनकर सामने नहीं आ सकती है और इस बात के लिए रिज़र्व बैंक के गवर्नर रघुरामन ने भी चिंता जताई है कि आज के वैश्विक परिदृश्य में किसी भी सरकार के प्रयास पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ ही जुड़े हुए हैं इसलिए हमारे देश पर उसका क्या असर पड़ सकता है इसके लिए सचेत भी होना चाहिए. वैश्विक स्तर पर भारत अर्थव्यवस्था का सञ्चालन करने की स्थिति में आज नहीं है वह केवल एक उभरता हुआ बड़ा बाज़ार है जिसके माध्यम से विश्व की बड़ी अर्थव्यस्थाएं अपने हितों को साधने की कोशिशों में लगी हुई हैं. सरकार किसी भी तरह के निर्णय के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है पर साथ ही उसे परिवर्तन के खतरों से देश की आर्थिक स्थिति को बचाने मामले पर भी ध्यान देने की बहुत आवश्यकता है.      
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