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मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

नेता,नैतिकता और बिहार का सन्दर्भ

                                               बिहार में जिस तरह से रोज़ ही नयी राजनैतिक गतिविधियाँ दिखाई व सुनाई दे रही हैं उनसे यही लगता है कि जब तक मांझी सीएम के तौर पर वहां बैठे हुए हैं तो इस सब से पार पाना किसी के भी बस में नहीं रहा गया है. आमतौर पर राजनीति में नेताओं द्वारा नैतिकता की लम्बी चौड़ी कहानियां सदैव ही सुनाई जाती रहती हैं पर जब धरातल पर कुछ करने का समय आता है तो उनको जैसे मति भ्रम हो जाता है और वे अपने द्वारा ही दिए गए इन उपदेशों को अपनी सुविधा के लिए पूरी तरह से भूल जाया करते हैं. आज जब मांझी पर इस बात के लिए प्रश्चिन्ह लग चुका है कि सदन का विश्वास उन्हें हासिल भी है या नहीं तो इस स्थिति में उनके द्वारा बड़े नीतिगत फैसले आखिर किस हक़ से लिए जा रहे हैं ? इस तरह के विलक्षण मामलों में क्या अब कोई ऐसी नैतिकता की नियामवली नहीं होनी चाहिए जिस पर चलना नेताओं के लिए एक आदर्श स्थिति मानी जाये क्योंकि एस आर बोम्मई और कल्याण सिंह के इसी तरह के विवादों में यह लगभग तय ही हो चुका है कि इन परिस्थितियों में क्या किया जाना चाहिए.
                                                                  इस तरह के मामलों में हमारे नेता देश के सामने क्या आदर्श प्रस्तुत कर पाते हैं यही चिंता का विषय है क्योंकि जब भी कोई ऐसा संकट सामने आता है तो कोर्ट के माध्यम से ही नेता एक दूसरे को नीचा दिखाने के बारे में सोचते रहते हैं तथा विधायिका की ज़िम्मेदारी पता नहीं कहाँ विलुप्त हो जाती है और उसकी जगह सत्ता लोलुप नेताओं की पूरी फ़ौज़ ही दिखाई देने लगती है. बिहार मामले में कोर्ट ने पहले नितीश को कोई बड़ी राहत नहीं दी पर अब जब माझी द्वारा बड़े नीतिगत पर राजनैतिक रूप से एक दांव के रूप में बड़े निर्णय लिए जाने लगे तो कोर्ट ने उन पर केवल दैनिक फैसलों तक सीमित रखने के बारे में स्पष्ट आदेश जारी कर दिया है. ऐसे मामलों में क्या राज्यपाल को केंद्र में बैठे हुए दल की महत्वकांक्षाओं की पूर्ति का साधन ही बनाया जाना चाहिए वह भी तब जब बिहार के पास लम्बे राजनैतिक और कानूनी जीवन वाले केसरीनाथ त्रिपाठी के रूप में एक बेहद कारगर राज्यपाल मौजूद हों ? केंद्र को इस तरह के किसी भी मामले में पूरी तरह से स्पष्ट दखल देकर देश के लोकतंत्र को सर्वोपरि रखने की कोशिश करनी चाहिए भले ही उसमें केंद्र या राज्य में किसी भी दल की सरकारें क्यों न हों.
                           एक तरफ बिहार में पिछड़ापन एक बड़ा मुद्दा होता है और जब उसके विकास के लिए काम किये जाने वाला बजट सत्र आहूत किया जा चुका हो तो उससे पहले इस तरह की अनिश्चितता का क्या मतलब बनता है ? आज भाजपा मांझी को केवल नितीश के सामने एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल करने में लगी हुई है जबकि वह यह बड़ी बात भूल जाती है कि जब राज्य का पूर्ण बजट बनाया जाना है तो आने वाले समय में इस तरह की अनिश्चितता राज्य को कितनी भारी पड़ सकती है फिर भी उसकी प्राथमिकता केवल नितीश को परेशान करने तक ही सीमित है. यह वही नितीश हैं जनके साथ चुनाव लड़कर उसने दोबार सत्ता का सुख बिहार में भोगा है और आने वाले समय में यदि चुनावों के बाद भाजपा बिहार में सरकार बनाने में सफल हो जाती है तो भी उसे नितीश की इन बेहतर योजनाओं की मांझी के लोकलुभावन वायदों से अधिक सहायता मिलने वाली है. यह देश का दुर्भाग्य ही है कि हमारे नेता और राजनैतिक दल सदैव ही इस तरह की राजनीति के खिलाफ तो होते हैं पर समय मिलने पर वे अपने को सबसे घटिया राजनीति का पैरोकार साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं और देश का इसी तरह से नुक्सान होता रहता है पर उनके दलों की सरकारें बची रह जाती हैं.    
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