मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

आतंक,अमेरिका और वैश्विक चिंताएं

                                              आज से वैश्विक आतंकवाद के मुद्दे पर अमेरिका में शुरू हो रहे साठ देशों के सम्मलेन से दुनिया को क्या हासिल होने वाला है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा पर जिस तरह से आईएस की गतिविधियाँ तेज़ी से बढ़ रही हैं तो उस स्थिति में अब दुनिया के सामने क्या विकल्प बचे हुए हैं यह सोचना भी बहुत महत्वपूर्ण होने वाला है. यह सही है कि विभिन्न देश, धार्मिक समूह और विद्रोही अपने राजनैतिक लाभ के लिए जिस तरह से किसी विशेष समूह के साथ मिलकर अपने घृणा के एजेंडे को लागू करने की दिशा में आगे बढ़ने लगते हैं तो उसका कोई अंत नहीं होता है और यह एक तरह से गृह युद्द में बदलकर एक समय वैश्विक अर्थव्यवस्था में मज़बूत रहे देशों को भी खोखला करने का काम ही किया करता है. अराजकता बढ़ने से जहाँ उन प्राकृतिक संसाधनों पर आतंकियों/ विद्रोहियों का कब्ज़ा हो जाता है वहीं उसके आस पास के क्षेत्रों में शांति भंग हो जाया करती है फिर भी दुनिया के कुछ ठेकेदार जैसे देश अपने लाभ के लिए इन मानवता विरोधी लोगों को गुपचुप समर्थन देने में नहीं चूकते हैं जिसका परिणम् आज सबके सामने है.
                                   इस तरह से आतंकियों द्वारा किसी भी क्षेत्र में जिस तरह से आमलोगों के लिए समस्याएं उत्पन्न की जाती हैं उस परिस्थिति में पूरे विश्व को यह सोचने और तय करने की आवश्यकता है कि इस तरह के समूहों के समर्थन से पूरी दुनिया पर उसका क्या असर पड़ सकता है पर दुर्भाग्य से एक बड़ी शक्ति दूसरी बड़ी शक्ति या उससे सीधे तौर पर निपट पाने में असफल रहने पर परदे के पीछे इस तरह की घृणित मानसिकता वाले लोगों का समर्थन कर दिया करती है. इस छिपे हुए रास्ते से जहां ये देश एक दूसरे के लिए तात्कालिक संकट तो पैदा करते ही हैं पर लम्बे समय में इससे होने वाले नुकसान से कोई भी पडोसी देश अछूता नहीं रह जाता है इसका ज्वलंत उदाहरण अमेरिका पर हुए ९/११ से समझा जा सकता है क्योंकि एक समय जिन लोगों को पाकिस्तान के साथ मिलकर अमेरिका ने यूएसएसआर (अब रूस) के विरुद्ध अफगानिस्तान में खड़ा किया था वही उस पर होने वाले सबसे बड़े आतंकी हमले के कर्ता-धर्ता थे. इस सब को जानते हुए भी क्या आज भी अमेरिका दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अपने विरोधियों से निपटने के लिए उसी रास्ते पर नहीं चल रहा है ?
                                       इस स्थिति में आज के सम्मलेन में शामिल होने वाले देशों के लिए आईएस या बोको हराम पर हमलावर होने से अधिक इनके उभार में खुद की संदिग्ध भूमिका की सही पड़ताल भी करनी चाहिए क्योंकि एक देश में किसी धर्म या जाति के नाम पर विद्रोहियों का समर्थन करते हुए पूरी दुनिया को किस तरह से सुरक्षित किया जा सकता है यह बताने वाला आज कोई भी नहीं है. इस सम्मलेन में चिंता का मुख्य विषय इस्लामी आतंकवाद ही रहने वाला है क्योंकि आज इसकी आंच इन देशों तक पहुँचने लगी है जबकि भारत तीन दशकों से इससे जूझ ही रहा है तो हमारी बात पर किसी ने कभी भी ध्यान नहीं दिया है. आतंक पर दोहरा रवैया अपनाकर इसे समूल नष्ट नहीं किया जा सकता है इसके लिए पूरी मानवता के लिए सोचने की अधिक आवश्यकता पड़ने वाली है पर दुर्भाग्य से आज भी कुछ देश आतंक की परिभाषा अपने अनुसार तय करने में लगे हुए हैं जिनके कारण ही इन आतंकियों के हौसले बढे हुए लगते हैं. इन आतंकियों को अत्याधुनिक हथियार आखिर किन देशों के माध्यम से मिल रहे हैं क्या यह चिंता का विषय नहीं होना चाहिए जबकि सम्मलेन में केवल आईएस और बोको हराम के खिलाफ संयुक्त कार्यवाही से आगे बढ़कर कुछ भी सोच लिया जाये तो वह एक बड़ी उपलब्धि हो सकती है.     
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