मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

भारतीय लोकतंत्र,विद्रोह और आफ्स्पा

                                            देश में आतंकी और राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट का प्रावधान ११ सितम्बर १९५८ को उस आदेश के स्थान पर किया था जो कभी अंग्रेज़ों द्वारा १५ अगस्त १९४२ को भारत छोडो आंदोलन से निपटने के लिए लाया गया था. आज़ादी के बाद सरकार को इस तरह के किसी कानून की कोई आावश्यकता नहीं पड़ी पर जब आज के असम, नागालैंड और मणिपुर क्षेत्र में विदेशों की धरती से काम करने वाले विद्रोहियों द्वारा भारतीय कानून को लगातार चुनौतियां दी जाने लगीं तो सरकार के पास इससे निपटने के लिए कड़े प्रावधान करने के अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं रहा गया था. इस कानून के तहत अशांत घोषित क्षेत्रों में सेना को असीमित अधिकार मिल जाते हैं जिससे वो किसी भी कानून को न मानने वाले विद्रोहियों/ आतंकियों से निपटा करती है और सेना पर स्थानीय निवासियों, विपक्षी राजनेताओं के साथ मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ता भी इसके लिए आरोप लगाया करते हैं जो अधिकांश मामलों में सेना और स्थानीय प्रशासन को दबाव में लाने की रणनीति ही अधिक होती है.
                                        भारतीय सेना का मानवाधिकार के मोर्चे पर बहुत शानदार रिकॉर्ड रहा है आज जो लोग आतंकियों के मानवाधिकारों की बात करते हैं वे यह भूल जाते हैं कि जिस व्यक्ति ने अपने शरीर पर सेना की वर्दी सिर्फ देश के लिए पहन रखी है वह भी एक मानव है और उसके भी कुछ मानवाधिकार हुआ करते हैं. पंजाब में जब पाक, ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका से जुड़े हुए समूह आतंक फ़ैलाने में लगे हुए थे तो जिन निर्दोषों को अकारण ही मौत के घाट उतारा गया क्या उनके कोई मानवाधिकार नहीं थे और कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों की खदेड़ने के बाद जिस तरह से आज भी पाक अपने विफल होते मंसूबों से हताश होकर किसी भी तरह कि गड़बड़ी को करने से बाज़ नहीं आ रहा है तो उस स्थिति में क्या सेना के अधिकारों में किसी भी तरह की कटौती संभव है ? आज यदि कश्मीर में शांति है तो उसके पीछे केवल सेना के प्रयास हैं जिनमें वो विपरीत परिस्थितियों में भी संयम बनाये रखते हुए अपना काम करती रहती है. आज भी जिस तरह से कश्मीरियों द्वारा सेना के रोके जाने पर अकारण विरोध किया जाता है और लोगों के भागने पर सेना की कार्यवाही में लोग मारे जाते हैं तो लोगों को मानवाधिकारों की याद तो आती है पर कश्मीरियों द्वारा कानून का अनुपालन न करके वे सेना के काम में क्या बाधा नहीं ड़ालते हैं ?
                               यह बहस बहुत लम्बी हो सकती है जिसमें इस कानून का समर्थन और विरोध किया जा सकता है आज भारतीय और पाकिस्तान के हिस्से वाले कश्मीर में कितना अंतर है यह आसानी से सभी को दिखाई देता है वहां पर कश्मीरियों की पहचान मिटाई जा रही है और केवल आतंकियों को ही जिहाद के नाम पर पाला पोसा जा रहा है तो क्या भारतीय कश्मीर के लोग भी उस तरह की परिस्थितियों में जीना चाहते हैं जिसमें उनके लिए हर समय खतरा ही बना रहे ? कश्मीर में पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाने के चक्कर में भाजपा भी आफ्स्पा को आंशिक तौर पर हटाने के लिए राज़ी दिखाई दे रही थी पर आरएसएस की तरफ से स्पष्ट संकेत मिलने के बाद ही सरकार ने सेना की उस रिपोर्ट को लीक किया है जिसमें सेना ने इस एक्ट को आंशिक या पूरी तरह से हटाने के बाद उत्पन्न होने वाली समस्याओं के बारे में अपनी चिंताएं व्यक्त की हैं. इस तरह के मामलों में आमतौर पर सरकार की तरफ से बयान ही जारी किये जाते हैं और सेना की मंशा को बताया जाता है पर अपनी संघ के दबाव में काम करने की मजबूरी को बचाने के लिए अब मोदी सरकार सेना के पीछे छिपकर अपने राजनैतिक मंतव्यों को पूरा करना चाहती है. सेना के कामों में अनावश्यक रूप से दखल नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि कोई नेता आज सत्ता में है तो वह कल नहीं भी हो सकता है पर सेना को तो सदैव ही इस मुश्किल परिस्थिति से निपटना ही है.            
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