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शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2015

बिहार- राजनीति जीतेगी लोकतंत्र हारेगा

                                         पिछले पखवाड़े से बिहार में चल रही राजनैतिक उठापटक के बीच आज से वहां की विधान सभा का बजट सत्र शुरू हो रहा है जो कि मांझी सरकार द्वारा २० जनवरी की मंत्रिमंडल की बैठक के फैसले के अनुरूप ही होने वाला है. तब बहुमत प्राप्त मांझी ने जिस तरह से सरकार के मुखिया के रूप में यह निर्णय किया था आज वे सदन में बिलकुल अकेले से लगते हैं क्योंकि पटना हाई कोर्ट द्वारा उनके समर्थक विधायकों को भी मत विभाजन के दौरान मत देने के अधिकार से वंचित कर दिया है. देखने सुनने में यह विशुद्ध रूप से राजनीति ही लगती है पर इस पूरे प्रकरण में उसके घटिया स्वरुप से लोकतंत्र की हार होती सी लगती है क्योंकि जनता के द्वारा सुशासन के मुद्दे पर दिए गए जनादेश का इस तरह से जातिगत आधार पर बंटवारा किया जायेगा यह पिछले वर्ष तक कोई सोच भी नहीं सकता था. भाजपा के मोदी के नेतृत्व में लोकसभा चुनावों से पहले ही उभरने के बाद नितीश की दूरियां एनडीए से बढ़ने लगी थीं और आज की राजनीति केवल बिहार में वर्चस्व की राजनीति से अधिक कुछ भी नहीं कही जा सकती है.
                               यह सही है कि मोदी के प्रभाव को दूर रखने के लिए ही नितीश ने अपनी कुर्सी मांझी के लिए छोड़ दी थी पर मांझी जेडीयू की कमज़ोर कड़ी साबित हुए और वे नितीश और जेडीयू के मज़बूत आधार में सेंध लगाने के लिए भाजपा के उस दांव में आ गए जिससे उनको आज नहीं तो कल राजनैतिक वनवास के अतिरिक्त कुछ भी मिलने वाला नहीं है. भाजपा के दृष्टिकोण से देखा जाये तो आने वाले समय में मांझी का सदन में हारना ही उचित है क्योंकि इस जोड़तोड़ के द्वारा बनी हुई सरकार के खिलाफ लोगों के गुस्से को झेलने का दबाव चुनावों में उस पर ही आने वाला है जिसे वह चाहकर भी दूर नहीं कर पायेगी और यदि वह मांझी के सदन का विश्वास हासिल करने के बाद चुनावों तक साथ रखती है तो उसके अपने दल में भी दिल्ली जैसा छिपा हुआ विद्रोह दिखाई दे सकता है जो उसकी चुनावी संभावनाओं को पूरी तरह से मंझधार में छोड़ सकता है. चुनावों में मांझी किस तरह से भाजपा की सीटों के गणित को और भी उलझाने का काम कर सकते हैं संभवतः इस बात का अंदाज़ा अभी मोदी और शाह को भी नहीं है जिस महादलित का दांव आज मांझी पर भाजपा लगा रही है कल यही उसके खिलाफ भी जा सकता है.
                             इसी बीच एक सर्वे में जिस तरह से बिहार की जनता का मूड नीतीश के पक्ष में दिखाया गया है उससे भी जेडीयू के हौसले ही बुलंद होने वाले हैं क्योंकि मांझी के बिहार को एक बार फिर से जातियों के दुष्चक्र में उलझाने के प्रयास से लोगों को नितीश का शासन अच्छा ही लगने वाला है. अपने बयानों से कई विवादों को अंजाम देने वाले मांझी क्या राजनीति में महादलितों की राजनीति में एक पौराणिक पात्र भस्मासुर से अधिक साबित नहीं होने वाले हैं जिसे असीमित शक्ति मिली पर उसे उसका सदुपयोग करना नहीं आया था ? बिहार कई दशकों बाद विकास के पथ पर बढ़ना शुरू कर चुका है और आज उसकी इस प्रगति को रोकने के किसी भी प्रयास से बिहार की जनता की नाराज़गी सर्वे में सामने आ गयी है. भाजपा के लिए यही अच्छा होगा कि वह अपने सुशासन के मुद्दे पर ही मैदान में उतरे पर आम जनता को मोदी ने जो चुनावी सपने दिखाए थे वे कहीं से भी इतनी जल्दी पूरे होने वाले नहीं है इस स्थिति को भाजपा नेतृत्व भी समझ रहा है और जिन राज्यों में सीधा हमला करने के लिए कांग्रेस मौजूद नहीं है वहां पर भाजपा के लिए जड़ें जमाना बहुत कठिन साबित हो रहा है इसीलिए बिहार में वह विकास को पीछे छोड़कर दलित महादलित का खेल खेल रही है और इस सबमें एक बात तो स्पष्ट ही है कि आज मांझी जीतें या नितीश पूरे प्रकरण में राजनीति तो जीत जाएगी पर नेता जिसकी दुहाई देते रहते हैं वह लोकतंत्र पूरी तरह से हार जायेगा.
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