मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 18 जून 2015

गारे-पलमा खदान के विस्थापित

                                                           कोयला खदानों से जुड़े आवंटन से लगाकर नीलामी तक की पूरी प्रक्रिया में खामियों के चलते जिस तरह से रोज़ ही नयी समस्या सामने आ रही है उससे यही लगता है कि आने वाले समय में भी इस मुद्दे को लेकर कोयला मंत्रालय और निजी कम्पनियों के बीच यह विवाद बना ही रहने वाला है. ताज़ा मामले में छत्तीसगढ़ के गारे पलमा ब्लॉक के आवंटन को लेकर जिस तरह से फिर कोर्ट में मामला पहुंचा हुआ है उसका निर्णय तो पता नहीं कब आएगा पर इस पूरे मामले में उन लोगों की नौकरियों दांव पर लग चुकी हैं जो अब आवंटन के बाद बदली हुई परिस्थिति में खुद के लिए कोई सही स्थान नहीं खोज पा रहे हैं. यूपीए सरकार के आवंटन के समय यह ब्लॉक जिंदल स्टील एंड पावर को दिया गया था जिसमें जिंदल की तरफ से तेज़ी से काम भी शुरू कर दिया गया था तथा ७५ प्रभावित लोगों में से ३६ को नौकरियां भी दे दी थीं. मार्च १५ की नीलामी में यह ब्लॉक फिर से ऊंची बोली के साथ जिंदल ने हासिल कर लिया जिसके बाद जिंदल और बालको के बीच सांठगांठ के आरोपों के साथ सरकार ने इसे कोल् इंडिया को दे दिया था और उसके बाद ही इन लोगों की समस्याएं शुरू हो गयी हैं.
                      निश्चित तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने इस बात के स्पष्ट निर्देश दे रखे हैं कि आवंटन से नीलामी प्रक्रिया तक किसी भी व्यक्ति की नौकरी को समाप्त किये जाने के बारे में कोई भी नहीं सोचेगा पर इस संदर्भ में संभवतः दिशा निर्देशों में कोई कमी रह गयी हैं जिसके चलते ही जिंदल ने अपने द्वारा काम पर रखे गए लोगों को नौकरी से निकालना शुरू कर दिया है. यहाँ पर यह बात भी विचारणीय है कि जब किसी कम्पनी के पास ब्लॉक रद्द होने के बाद वहां पर कुछ बचा ही नहीं है तो वह किसी को नौकरी देने के लिए किस तरह से बाध्य की जा सकती है ? आवंटन या नीलामी के बाद जिस कम्पनी के पास कोल् ब्लॉक है अधिग्रहीत भूमि भी उसके द्वारा उपयोग में लायी जा रही है तो पुरानी कम्पनी पर इस बात का दबाव या कानूनी बाध्यता कहाँ तक लागू हो सकती है कि वह अपने स्रोतों से इन विस्थापितों के लिए कल्याणकारी योजनाएं चलाती ही रहे ? जिन विस्थापितों की भूमि जिस भी कम्पनी के पास गयी है क्या उसके द्वारा ही विस्थापितों की पूरी ज़िम्मेदारी नहीं ली जानी चाहिए संभवतः किसी स्पष्ट आदेश के अभाव में सभी अपनी मनमानी व्याख्या करने में लगे हुए हैं.
                           नीलामी में मिले हुए ब्लॉक को भी कोल इंडिया को आवंटित किये जाने के कारण जिंदल अब इसे कोर्ट में ले जा चुकी हैं जिससे भी यहाँ के पूरे काम काज पर विपरीत असर पडने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है. इस पूरे प्रकरण में उन गरीब आदिवासियों की क्या गलती है जिनकी भूमि का तो अधिग्रहण कर लिया गया पर आज भी उनके पास स्थायी नौकरी या भूमि वापस नहीं आई है ? क्या इस तरह की असंतोष वाली परिस्थितियां ही नक्सलियों को इन क्षेत्रों में विद्रोह करने के लिए और लोग उपलब्ध नहीं कराती हैं ? कारण चाहे जो भी हों पर केंद्र सरकार की तरफ से जिस तरह कोल ब्लॉक नीलामी पर अपनी पीठ ठोंकी जा रही है क्या यह उसका एक बेहद विकृत स्वरुप नहीं है क्योंकि जब भूमि के स्वामी को इस तरह से दर दर की ठोकरें ही खानी हैं तो नयी नीलामी प्रक्रिया में क्या सही है इस पर भी विचार नहीं किया जाना चाहिए ? सरकार केवल अपने राजस्व के बारे में ही सोचकर खुश हो रही है और खुद पीएम विदेशों तक में इस बात का श्रेय लेते नहीं थकते हैं पर ज़मीनी हकीकत क्या बयान कर रही हैं इस बात को आज कोई भी देखना नहीं चाहता जिससे इस भेदभाव का आम जनता ही शिकार हो रही है. 
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें