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बुधवार, 1 जुलाई 2015

बिहार - परिवर्तन का साक्षी

                                                    बिहार का नाम सामने आते ही जिस तरह से कुछ अराजक राज्य की छवि देश के सामने कौंध जाती है पिछले कुछ वर्षों से यह राज्य जिस तरह से अपने को ज़मीनी स्तर पर तेज़ी से बदलने में लगा हुआ है उसका प्रभाव नितीश कुमार के पहले शासन काल से ही मिलने लगा था और उसकी यह गति आज भी उसी तरह से बनी हुई है. वैसे तो सन २००० में अटल सरकार ने पूरे देश में १७३४ फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की योजना शुरू की थी पर उसके लिए जिस स्तर पर तेज़ी आनी चाहिए थी वह राज्यों की जागरूकता के चलते नहीं आ पायी और केंद्र से मिलने वाली सहायता २०११ में समाप्त होने के बाद भी बिहार ने कुछ अन्य राज्यों के साथ इस काम को तेज़ी से ही आगे बढ़ाया जिससे आज वहां देश में सर्वाधिक ऐसे कोर्ट काम कर रहे हैं.  निर्भया कांड के बाद केंद्र सरकार ने महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों, अशक्तों और लम्बे पारिवारिक विवादों से जुड़े मामलों के लिए इस तरह के कोर्ट स्थापित करने के लिए प्रतिवर्ष ८० करोड़ रुपयों की व्यवस्था की थी जिसका बिहार, महाराष्ट्र, हिमाचल और यूपी ने भरपूर लाभ उठाते हुए अपने यहाँ इस काम को बहुत तेज़ी से किया.
                                             चिंता की बात यह है कि बिहार जैसे राज्य के लिए इस तरह के बहुत सारे प्रयासों को किये जाने और बेहतर परिणाम सामने आने के बाद भी मीडिया में उसे समुचित स्थान नहीं मिल पाता है तो क्या इसे मीडिया का दोहरा रवैया कहा जाये या फिर बिहार को केवल पिछड़ा राज्य कहकर उसकी अराजकता का ही बखान करने की कोई सोची समझी साजिश ? मांझी के बंगले के आम, लीची आज के मीडिया के लिए बड़ी ख़बरों में शामिल हैं जबकि फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट पर किये गए उल्लेखनीय काम संभवतः राष्ट्रीय स्तर के मीडिया की नज़रों में आते ही नहीं हैं ? अब इसके लिए बिहार के मीडिया से जुड़े लोगों को ज़िम्मेदार माना जाये या कहीं कुछ ऐसा होता है कि बिहार की खबरें आने के बाद उन्हें एक रणनीति के तहत ही राष्ट्रीय मीडिया में वह जगह नहीं मिल पाती है जिसका वह हक़दार है. अब इस सवाल का जवाब तो मीडिया को देना ही होगा कि आखिर ख़बरों के मामले में बिहार के साथ इस तरह का सौतेला व्यवहार क्यों किया जाता है जबकि कथित रूप से बहुत अच्छा काम कर रहे राज्यों गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्णाटक समेत केरल का भी इस सूची में कहीं नाम दिखाई नहीं दे रहा है ? क्या यह मान लिया जाये कि इन राज्यों में इस तरह की समस्या नहीं है या फिर अपराधियों को न्याय की चौखट तक पहुँचाने में नेताओं की दिलचस्पी ही कम है.
                                           आज़ादी के बाद से लगातार आज भी बिहार केंद्रीय सेवाओं में सबसे अधिक स्थान लेने वाला राज्य है और यहाँ के लोगों के जीने का जज़्बा देखने ही लायक है पर बीच में बिहार ने कुछ समय ऐसा भी देखा कि जय प्रकाश नारायण की कर्मभूमि आज अपनी प्रतिष्ठा को बचाने के लिए संघर्षरत है. सुपर-३० के माध्यम से बिहार देश का पहला राज्य बना जो वंचितों के लिए वहां के आम लोगों के जज्बे को ही दिखाता है. आज भले ही फिल्मों से लगाकर हर जगह बिहार का उपहास किया जाता है पर वहां के लोगों को जिस परिवर्तन की आस जग गयी है वह देश के इस राज्य को बहुत आगे ले जाने का काम ही करने वाली है. देश के बड़े अफसरों में बिहार / यूपी का हमेशा से ही दबदबा रहा है और मोदी सरकार में भी स्थिति वैसी ही है फिर भी पता नहीं क्यों इन अफसरों ने भी कभी बिहार के इस चेहरे पर ध्यान देने की कोई गंभीर कोशिश नहीं की और वे भी बिहार कैडर से बाहर ही अपनी नौकरी करने में ही संतुष्ट दिखाई देने लगे जिससे बिहार की जनता ने कई दशकों तक वह अभिशाप झेला जिसके लिए लिए उनकी कोई गलती ही नहीं थी.      
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