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शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

मोदी सरकार की संसदीय अकुशलता

                                                                                        पिछले वर्ष के आम चुनावों के बाद जब देश में जब प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार ने काम काज संभाला था और उसके पहले और बाद में जिस तरह से भाजपा सरकार का प्रदर्शन रहा है उसे आमतौर पर औसत ही कहा जा सकता है क्योंकि सरकार के पास आये हुए वृहद जनादेश का लाभ उठाने में मोदी पूरी तरह से चूकते नज़र आ रहे हैं और सदन से लेकर सड़कों तक भाजपा का जो चेहरा अभी तक देश ने देखा था वह एकदम से कहीं गायब सा हो गया है. यह सही है कि लम्बे समय तक देश पर शासन करने के कारण ही कांग्रेस मोदी सरकार और भाजपा के लिए आसान निशाना होती है और जब भी कुछ नया करने की बात होती है तो पहले कांग्रेस पर हमला किया जाता है और फिर अपनी बात कही जाती है. संसद में सरकार का फ्लोर मैनेजमेंट कितना लचर है यह कई बार दिखाई भी दे चुका है और गंभीर रूप से चर्चा करने के स्थान पर आज भी सत्ता पक्ष सिर्फ कांग्रेसी सदस्यों से उलझने को ही संभवतः संसदीय कार्य मानकर काम करता हैं. सरकार अपना वह समय पूरा कर चुकी है जहाँ पर वह काम समझने के बहाने कुछ न होने को एक बड़ा कारण बता सकती है इसलिए अब इस दिशा में सरकार को गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता है.
                                            संसद में सरकार का मैनेजमेंट किसी भी तरह से स्तरीय नहीं कहा जा सकता है क्योंकि महत्वपूर्ण मुद्दों पर जिस तरह से उसकी और संसदीय कार्य मंत्रालय की तरफ से प्रयास करने चाहिए आज भी वे दिखाई नहीं देते हैं. संसदीय परंपरा में असहमति को अधिक स्थान दिया जाता है तथा महत्वपूर्ण मुद्दों पर अकेले चलने के स्थान पर बीच का रास्ता निकाल कर आगे बढ़ने के बारे में सोचा भी जाता है पर आज के अधिकांश भाजपा सांसदों में नए लोग सदन में आये हुए हैं जिनके पास सदन चलने सम्बंधित कोई अनुभव भी नहीं है और उनका पूरा राजनैतिक जीवन कांग्रेस का विरोध करते हुए ही बीता है इसलिए ही आज भाजपा के संसद अपनी सरकार के मंत्री के बोलते समय भी हल्ला मचने की प्रवृत्ति से आगे नहीं बढ़ पाते हैं. कमज़ोर विपक्ष होने के बाद भी सरकार का सदन न चला पाना उसकी कुशलता पर ही प्रश्न चिन्ह लगाया करता है. इस मामले में मोदी के चुनाव और उसके साथ दिए गए उन बयानों को ही ये सांसद आदर्श मानते हैं जिसमें मोदी मनमोहन सरकार के हर कदम को गलत ही बताया करते थे और आज सत्ता सँभालने के बाद वे उसी एजेंडे को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं. आज कमज़ोर विपक्ष यदि सदन चलने नहीं दे रहा है तो उस पर सरकार को फिर से विचार करने की आवश्यकता भी है.
                                          मोदी ने भाजपा में अपनी पकड़ मज़बूत करने के लिए जिस तरह से भाजपा के दिग्गजों को किनारे लगाया और महत्वपूर्ण लोगों को कोई काम देने के स्थान पर उन्हें हाशिये पर डाल दिया सदन में सरकार मोदी की उस भूल का हिसाब चुकाती हुई ही अधिक दिखती है. संसदीय कार्यों के लिए सुषमा बेहतर विकल्प हो सकती थीं और अडवाणी-जोशी के अनुभव का उनको सम्मान देते हुए भरपूर लाभ उठाया जा सकता था क्योंकि उनकी वरिष्ठता को देखते हुए विपक्षी भी उनका सम्मान किया करते हैं. जो अनुशासन लोकसभाध्यक्ष के चाहने पर भी नहीं बन पाता है वह इन दोनों के वक्तव्य देते समय अपने आप ही कैसे बन जाता है यह सरकार के लिए यथार्थ को समझने का एक उदाहरण भी हो सकता है. वेंकैया नायडू से इतने महत्वपूर्ण समय पर संसदीय कार्य मंत्रालय नहीं संभल रहा है अभी यह तथ्य मोदी-शाह को अभी समझ नहीं आ रहा है और वे संभवतः उनको अभी बदलना भी नहीं चाह रहे हैं जिससे सरकार सदन में कई बार अजीब सी स्थिति का सामना करती हुई दिखाई देती है. अब भी समय है कि अपने बचे हुए समय के लिए मोदी एक बार फिर से सरकार चलाने की दिशा पर विचार करना शुरू करें जिससे सदन में सरकार को महत्वपूर्ण कामों के लिए सभी का सहयोग मिलना शुरू हो सके.         
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