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सोमवार, 2 नवंबर 2015

वैचारिक द्वन्द या नीति

                                        लगता है कि बिहार में चुनाव संपन्न होने तक पीएम मोदी ने हिन्दू वोटों को साधने के लिए देश के विभिन्न राज्यों में सामाजिक असहिष्णुता बढ़ने चुप्पी लगाना ही बेहतर समझा है क्योंकि उनका अधिक सहिष्णु दिखना कहीं से भारत के उस जनमानस पर असर डालता है जो उन्हें संघ की भाषा वाले हिन्दू हितों की रक्षा करने वाले नेता के रूप में ही आगे बढ़ाना चाहता है. गुजरात दंगों के बाद जिस तरह से उनकी छवि को एक रणनीति के तहत ही गढ़ने का काम संघ और गुजरात भाजपा द्वारा किया गया अभी तक वह अपने उद्देश्य में सफलता हासिल करने की तरफ ही बढ़ता दिखाई दे रहा था पर देश की राजनीति में आज भी सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले और संसदीय गणित को बनाने बिगाड़ने वाले राज्य यूपी में २०१७ के चुनाव जिस तरह से भाजपा और संघ को अभी से धरातल पर काम करने को मजबूर कर रहे हैं संभवतः यूपी में बढ़ती हुई असहिष्णुता उसी का एक हिस्सा भर है. इस संबके बाद भी भाजपा के बड़े नेता यह चाहते हैं कि देश में हर बात उनके हिसाब से हो तो उन्हें कौन समझा सकता है ?
                            देश के साहित्यकारों और विभिन्न अन्य क्षेत्रों से जुड़े हुए लोगों द्वारा भारत सरकार से मिले अपने सम्मानों को पिछले कुछ दिनों से जिस तरह से लौटाये जाने का क्रम शुरू हुआ है उसकी गंभीरता को समझने में मोदी सरकार पूरी तरह से विफल ही रही है क्योंकि जब तक सरकार समाज की आवाज़ नहीं बन सकती है तब तक उसे इस तरह के वैचारिक द्वंदों से निपटने के लिए तैयार ही रहना होगा. अभी तक सरकार को यह लग रहा था कि उनकी तरफ से इस मुद्दे की अनदेखी करने से ही समस्या का समाधान हो जायेगा और लोग थोड़े दिनों में भूल भी जायेंगें कि इस बारे में किस किस ने सम्मान लौटाए थे पर विकास के नाम पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हर संभव प्रयास करने में जुटे हुए पीएम की हर कोशिश पर इस असहिष्णुता का कितना असर पड़ रहा है अब यह वैश्विक रेटिंग एजन्सी मूडीज द्वारा आर्थिक वृद्धि दर को कम किये जाने और ऐसा ही चलते रहने पर चेतावनी देने के बाद गृह मंत्री और वित्त मंत्री को यह लगा कि इस मसले पर यदि अब भी कुछ नहीं बोला गया तो बहुत देर हो जाएगी पर सरकार की तरफ से जो बयान आ रहे हैं वे भी अभिमान में डूबे हुए हैं जिनका असर निश्चित तौर पर देश की आर्थिक गतिविधियों पर भी पड़ने वाला है.
                           देश में आज वैचारिक स्तर पर जो कुछ भी चल रहा है सरकार में होने के कारण उससे निपटना मोदी और भाजपा की मजबूरी है और वे किसी भी तरह से किसी अन्य पर इसकी जवाबदेही डालकर नहीं बच सकते हैं. जेटली खुद मोदी को वैचारिक असहिष्णुता का शिकार बताने में नहीं चूक रहे हैं तो राजनाथ सिंह कहते हैं कि सम्मान लौटाए जाने के स्थान पर इन लोगों को बातचीत कर अपनी बात सरकार के सामने रखनी चाहिए. राजनाथ सिंह यह भूल जाते हैं कि इतने आक्रोश में भरे हुए इन लोगों का सामना करने के लिए क्या भाजपा में आज कोई नेता है जो पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अपनी सरकार का रुख इनके सामने स्पष्ट कर सके ? सबसे प्रखर प्रवक्ता होने के बाद भी संबित पात्रा जिस तरह से हर मसले पर आक्रामक होकर ही जवाब देना पसंद करते हैं तो क्या उससे भाजपा की छवि अच्छी हो रही है और यदि भाजपा का सरकार में होने के बाद इस तरह से हमलावर होना एक नीति है तो निश्चित तौर पर यह नीति भाजपा और देश का बहुत नुकसान करने की तरफ जा रही है. संघ के भैय्या जी कहते हैं कि कुछ ताकतें उनके संगठन को बदनाम करने की कोशिशें कर रही हैं पर वे खुद अपने गिरेबान में झांक कर यह नहीं देखना चाहते हैं कि जो भी ऐसी घटनाएँ हो रही हैं उनमें अधिकांश में संघ की विचारधारा को मानने वाले ही आखिर क्यों सामने आ जाते हैं ? अब तो रिज़र्व बैंक के गवर्नर भी सांकेतिक रुप से यह कहते हैं कि असहिष्णुता में कटौती होनी चाहिए तो मोदी के प्रशंसक नारायण मूर्ति को भी लगता है कि यह सब ठीक नहीं है फिर भी सरकार अपनी चुप्पी और अनर्गल बयानों पर कुछ ठोस कह पाने में पूरी तरह से असफल साबित हो रही है.                                 
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