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सोमवार, 11 जनवरी 2016

कश्मीर राजनैतिक संकट की तरफ ?

                                                      जम्मू कश्मीर के सीएम मुफ़्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद वहां की राजनीति पर एक बार फिर से अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे हैं क्योंकि मुफ़्ती के नाम पर भाजपा में जिस हद तक आम सहमति थी वह महबूबा के नाम पर नहीं बन पा रही है जिसके चलते भी पीडीपी और भाजपा गठबंधन के भविष्य पर इस बात का दुष्प्रभाव पड़ने लगा है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के शोक प्रकट करने के लिए मुफ़्ती के घर तक जाने के बाद इस बात के कयास लगाये जाने लगे हैं कि कहीं यह आने वाली नयी राजनीति की आहट तो नहीं है ? अभी तक मुफ्ती के नेतृत्व में गठबंधन सरकार का प्रदर्शन कमोबेश ठीक ही कहा जा सकता है क्योंकि इतने अशांत राज्य में सब कुछ ठीक कर पाना इतना आसान भी नहीं होने वाला है. ऐसी परिस्थिति का लाभ उठकर देश में राजनीति करने को सदैव से ही एक परंपरा के रूप में निभाया जाता है और आज यदि कांग्रेस भी उसी राह पर चल रही है तो यह देखने सुनने में कुछ अजीब तो नहीं है पर जम्मू कश्मीर के भविष्य के लिए केंद्र सरकार से नाता तोड़कर महबूबा के लिए सीएम बनना भी आसान नहीं रहने वाला है.
                                                       यह राज्य और देश दोनों के लिए ही एक महत्वपूर्ण समय है क्योंकि लम्बे समय के बाद जिस तरह से वहां पर सुरक्षा बलों को आतंकियों के पाँव उखाड़ने और सीमा पार से घुसपैठ को रोकने में सफलता मिली है उसे देखते हुए राज्य में किसी भी तर का राजनैतिक शून्य नहीं बनाया जाना चाहिए और इसकी ज़िम्मेदारी कश्मीरी नेताओं से अधिक दिल्ली में बैठे भाजपा और कांग्रेस के नेताओं पर आती है. राज्य में राजनैतिक गतिविधियाँ सही तरह से चलनी चाहिए इस बात पर किसी को भी आपत्ति नहीं है तो पूरे मामले की गंभीरता को समझते हुए इस पर सभी को कश्मीर और देश के भविष्य के बारे में सोचना चाहिए. यह भी सही है कि मुफ़्ती के साथ भाजपा ने जिन शर्तों पर काम शुरू किया था उनके न रहने के बाद शर्तों को पुनर्निर्धारित करने का भी समय आ गया है और इस मसले पर संवादहीनता से काम नहीं चलने वाला है. भाजपा और पीडीपी दोनों दलों को केवल उन शर्तों के बारे में ही सोचना चाहिए जिनसे कुछ सकारात्मक परिणाम सामने आ सकते हैं. भाजपा के विभिन्न नेताओं कि तरफ से जिस तरह की बयानबाज़ी की जाती है उसे देखते हुए आज यही लगता है कि महबूबा उस पर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से कोई ठोस आश्वासन भी चाहती हैं.
                                                 दोनों ही पक्षों को सरकार के गठन के लिए नए सिरे से सोचने के स्थान पर शर्तों को आज की परिस्थिति के अनुसार संशोधित करना ही सही रहेगा क्योंकि घाटी में पीडीपी को अपने वोटर्स को जवाब देना है जिसके लिए उसे उनकी फ़िक्र भी हो रही है पर भाजपा इस मुद्दे पर अपने जम्मू के वोटर्स को सँभालने के चक्कर में कुछ भी बोलने वाले नेताओं के साथ कठोरता से पेश नहीं आ सकती है. इस परिस्थिति में दोनों दलों के सामने अपने वोट बैंक को सँभालने की चुनौती बढ़ती ही जा रही है जिससे भी राजनैतिक अस्थिरता देखी जा रही है. महबूबा के सामने अब राज्य की कमान सँभालने के साथ अपने को सिद्ध करने का समय भी आ गया है जिसके चलते अब वे किसी भी परिस्थिति में अपने वोटर्स को नाराज़ नहीं कर सकती हैं. इस मुद्दे पर कांग्रेस के बेहतर रणनीतिकार गुलाम नबी आज़ाद के पास करने के लिए बहुत कुछ है इसलिए कांग्रेस की तरफ से महबूबा को चुनाव के बाद दिए गए समर्थन के पत्ते फिर से चल दिए गए हैं. यह समय अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं को किनारे रखकर कश्मीर के विषय में सोचने का है क्योंकि अपनी राजनीति को साधने के लिए किसी भी स्थिति में घाटी के साथ कोई खिलवाड़ कर पिछले दो दशकों में ली गयी बढ़त को समाप्त करना देशहित में नहीं होगा.   
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