यूपी में एक बार फिर से वर्तमान में चल रहे उप चुनावों के बीच जिस तरह से २०१३ के उत्तरार्ध का माहौल बनाया जा रहा है उससे यही लगता है कि उस समय सामाजिक ताने बाने को भरपूर क्षति पहुँचाने के बाद भी सभी दलों के नेताओं को यह समझ में नहीं आ रहा है कि चुनाव जीतने के लिए अपनाये जाने वाले ये छिछोरे हथकंडे समाज को किस हद तक बाँट दिया करते हैं. धार्मिक आधार पर केवाल के बाद जो भेदभाव उठा वह आज भी पश्चिमी यूपी को सामान्य नहीं कर सका है जिसके चलते समाज में बंटवारा स्पष्ट रूप से दिखाई भी देता है इस सबके बाद भी आज एक बार फिर से इन चुनावों को अगले वर्ष के आम विधानसभा चुनावों का पूर्वाभ्यास मानकर जिस तरह से सामाजिक लकीरें खींचने का काम शुरु किया जा चुका है वह किसी भी तरह से देश के विकास को आगे बढ़ाने वाले नहीं कहा जा सकता है. दुर्भाग्य की बात यह भी है कि सत्ताधारी सपा और लोकसभा में सभी का सूपड़ा साफ़ करने वाली भाजपा अब भी उस परिस्थिति से बाहर निकलने की कोशिश करते नज़र नहीं आ रहे हैं क्योंकि दोनों को ही यह लगता है कि सत्ता तक पहुँचने का यही मार्ग सुगम भी है.
भारत में यह दुर्भाग्य की ही बात है कि समाज में होने वाली किसी भी विभाजनकारी घटना से विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा जिस तरह से अपने राजनैतिक हितों को साधने का काम शुरू किया जाता है वह मामले को और भी उलझा कर रख देता है और समाज के निचले स्तर तक यह विभाजन स्पष्ट रूप से महसूस भी किया जाने लगता है. इस परिस्थिति में क्या देश के संविधान के पास कुछ और अधिकार भी नहीं होने चाहिए जिसमें इस तरह की घटनाओं को मानवाधिकार आयोग के माध्यम से सुलझाने का प्रयास किया जाना चाहिए ? राजनैतिक दल और उनकी राजनीति तभी तक सफल है जब तक देश का ढांचा बचा हुआ है वर्ना अपने आस-पास के हर दूसरे व्यक्ति पर शक करके आखिर समाज कब तक शांति के साथ जी सकता है ? भाजपा के लिए कांग्रेस, सपा, बसपा का दिखावे भरा मुस्लिम प्रेम वरदान का काम करता है क्योंकि जब ये सभी दल एक तरफ़ा बात करने में लग जाते हैं तो उसकी प्रतिक्रिया स्वरुप भाजपा को हिंदुत्व और हिन्दू हितों की पैरवी करने के बहाने भी मिल जाते हैं और उनका असर बुरा ही होता है.
अब समय आ गया है कि देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य के नेताओं के साथ केंद्र के नेताओं को भी इस तरह की बातों पर नए सिरे से सोचना होगा क्योंकि बिखरा हुआ समाज अपनी प्रगति के साथ क्षेत्र, राज्य और देश की प्रगति में भी बाधक बन जाता है. आज़ादी के कुछ दशकों बाद तक यह सब गौण हुआ करता था क्योंकि तब मुद्दों पर आधारित बहस और राजनीति हुआ करती थी. विभिन्न दलों के नेता अपने शीर्ष नेताओं के साथ वैचारिक मतभेदों को संसद से सड़क तक प्रदर्शित भी किया करते थे जिससे जहाँ राजनीति में परिपक्वता आती थी वहीं सरकार को भी उस आवाज़ को सुनना ही पड़ता था. आज के सन्दर्भ में परिस्थितियां बिल्कुल बदल गयी हैं जिससे भी राजनीति का स्वरुप बहुत बिगड़ गया है एक समय विचार ही महत्वपूर्ण हुआ करते थे पर अब उनका स्थान जाति, भाषा और धर्म ने ले लिया है जिससे भी पूरी तरह से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है. कहने को हर दल इस तरह के बंटवारे से देश को बचाने की बात करता है पर चुनाव के समय उसे भी विभिन्न स्थानीय समीकरणों की याद आती है जिनके माध्यम से वे कुछ सीटें बढ़ाने में सफल हो सकते हैं.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
भारत में यह दुर्भाग्य की ही बात है कि समाज में होने वाली किसी भी विभाजनकारी घटना से विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा जिस तरह से अपने राजनैतिक हितों को साधने का काम शुरू किया जाता है वह मामले को और भी उलझा कर रख देता है और समाज के निचले स्तर तक यह विभाजन स्पष्ट रूप से महसूस भी किया जाने लगता है. इस परिस्थिति में क्या देश के संविधान के पास कुछ और अधिकार भी नहीं होने चाहिए जिसमें इस तरह की घटनाओं को मानवाधिकार आयोग के माध्यम से सुलझाने का प्रयास किया जाना चाहिए ? राजनैतिक दल और उनकी राजनीति तभी तक सफल है जब तक देश का ढांचा बचा हुआ है वर्ना अपने आस-पास के हर दूसरे व्यक्ति पर शक करके आखिर समाज कब तक शांति के साथ जी सकता है ? भाजपा के लिए कांग्रेस, सपा, बसपा का दिखावे भरा मुस्लिम प्रेम वरदान का काम करता है क्योंकि जब ये सभी दल एक तरफ़ा बात करने में लग जाते हैं तो उसकी प्रतिक्रिया स्वरुप भाजपा को हिंदुत्व और हिन्दू हितों की पैरवी करने के बहाने भी मिल जाते हैं और उनका असर बुरा ही होता है.
अब समय आ गया है कि देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य के नेताओं के साथ केंद्र के नेताओं को भी इस तरह की बातों पर नए सिरे से सोचना होगा क्योंकि बिखरा हुआ समाज अपनी प्रगति के साथ क्षेत्र, राज्य और देश की प्रगति में भी बाधक बन जाता है. आज़ादी के कुछ दशकों बाद तक यह सब गौण हुआ करता था क्योंकि तब मुद्दों पर आधारित बहस और राजनीति हुआ करती थी. विभिन्न दलों के नेता अपने शीर्ष नेताओं के साथ वैचारिक मतभेदों को संसद से सड़क तक प्रदर्शित भी किया करते थे जिससे जहाँ राजनीति में परिपक्वता आती थी वहीं सरकार को भी उस आवाज़ को सुनना ही पड़ता था. आज के सन्दर्भ में परिस्थितियां बिल्कुल बदल गयी हैं जिससे भी राजनीति का स्वरुप बहुत बिगड़ गया है एक समय विचार ही महत्वपूर्ण हुआ करते थे पर अब उनका स्थान जाति, भाषा और धर्म ने ले लिया है जिससे भी पूरी तरह से समस्या का समाधान नहीं हो सकता है. कहने को हर दल इस तरह के बंटवारे से देश को बचाने की बात करता है पर चुनाव के समय उसे भी विभिन्न स्थानीय समीकरणों की याद आती है जिनके माध्यम से वे कुछ सीटें बढ़ाने में सफल हो सकते हैं.
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