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मंगलवार, 22 मार्च 2016

आरक्षण की राजनीति

                                               आज़ादी के बाद जिस अस्थायी प्रावधान के द्वारा देश के पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने का जो काम किया गया था वह निश्चित तौर पर उनके लिए कुछ हद तक कारगर भी साबित हुआ है पर १९८९ के बाद से जिस तरह आरक्षण देश में एक बड़ा मुद्दा बन गया है उससे यही लगता है कि आज़ादी दिलवाने वाले नेताओं की सोच से अलग सोच रखने वाले आज के नेता इस मामले को उतनी संवेदनशीलता से लेना ही नहीं चाहते हैं जिसे सोचकर आरक्षण को देश में लागू किया गया था ? उस समय यह सोच थी कि प्रारम्भ में इस तरह से उन लोगों को आरक्षण के माध्यम से आगे बढ़ाने का काम किया जाना चाहिए क्योंकि आज़ादी से पहले इन लोगों की शिक्षा और नौकरियों के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं थी तथा उनके लिए उन परिस्थितियों में पढ़ पाना बहुत ही मुश्किल काम था. सरकार की तरफ से सीमित संसाधनों के चलते इस तरह की किसी भी व्यवस्था को लागू कर पाना बहुत ही मुश्किल काम था जिसमें इन वंचितों के लिए १० वर्षों में ही शिक्षा के स्तर को उतना गुणवत्तापरक बनाया जा सकता जिससे वे अन्य वर्गों के लोगों से प्रतिस्पर्धा कर सकते.
                                         इस मामले में देश के सभी राजनैतिक दलों को ही दोषी ठहराया जा सकता है क्योंकि यह उनकी और संसद की खुली व स्पष्ट विफलता है जिसमें आज़दी के समय किये गए इन प्रावधानों के अनुरूप वंचितों के पूरे समूहों के लिए उचित व्यवस्था कर पाने के स्थान पर केवल उन्हें बार बार अस्थायी आरक्षण का झुनझुना थमाया जाता रहा है. आज आरक्षण देश में एक ऐसी स्थिति में पहुँच चुका है जहाँ इसकी बात करना भी ऐसा माना जाता है जैसे कि वह व्यक्ति या राजनैतिक दल अपने आप में आरक्षण का घोर विरोधी है जबकि आज इन वंचितों की स्थिति पर विचार कर आरक्षण के स्वरुप पर पुनः विचार किये जाने की आवश्यकता भी है. आरक्षण और इसे ख़त्म करने की मांग के पक्ष और विपक्ष में खड़े लोगों के लिए यह बेहतर राजनैतिक मुद्दा भी हो सकता है और वे इसी काम के लिए लगे भी रहते हैं पर कोई इस बात को नहीं समझना चाहता है कि क्या इस आरक्षण से उन सभी वंचित समूहों के लिए देश कुछ कर पाया है जिन्हें इसकी बहुत आवश्यकता सदैव से ही रही है या फिर आरक्षण भी एक तरह से आरक्षण पाये कुछ लोगों के हाथों में क़ैद होकर ही रह गया है.
                                  संसद को इस मामले में नए सिरे से सोचने की आवश्यकता भी है साथ ही सुप्रीम कोर्ट की तरफ से एक संवैधानिक पीठ का गठन भी किया जाना चाहिए जिस तक सभी लोगों की सुझाव देने के लिए आसान पहुँच हो. देश के वंचित समूह के जीवन स्तर को सम्पूर्ण रूप से ऊंचा उठाये जाने के लिए एक राष्ट्रीय नीति बनाये जाने की आवश्यकता भी है क्योंकि उस स्थिति में सरकार के बदलने का दुष्प्रभाव इस नीति पर नहीं पड़ेगा. आरक्षण की स्थिति को परिवर्तित करने की बात को राजनैतिक रूप से करने के स्थान पर सामाजिक रूप में किया जाना बहुत आवश्यक है अगले तीस/ चालीस वर्षों में वंचितों के लिए शिक्षा की वे मूलभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराये जाने की ईमानदार कोशिशें होनी चाहिए जिससे इनके शिक्षा स्तर में व्यापक सुधार किया जा सके. सरकार को उन क्षेत्रों में शिक्षा के स्तर को उच्चस्तरीय करने के लिए नए सिरे से नीतियां बनाने की आवश्यकता भी है. इनके क्षेत्रों में केवल स्कूल खोलने से कुछ भी नहीं हो सकता है क्योंकि ये स्कूल तो बहुत दिनों से अनमने मन से खोले जा रहे हैं जहाँ हज़ारों करोड़ रूपये खर्च करने के बाद भी इनके शिक्षा के स्तर में कोई परिवर्तन नहीं हो पाया है. सरकार इस मामले में अपनी नीति में ऐसे स्थानों पर गुणवत्तापरक स्कूल खोलने वाले उद्योग समूहों को अन्य तरह कि कर राहत देकर इस क्षेत्र का सहयोग भी ले सकती है पर इस सोच को सामने लाने के लिए एक दल के स्थान पर सम्पूर्ण राजनैतिक तंत्र को समवेत प्रयास करने आवश्यक होंगें.  
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