आज़ादी के सातवें दशक में जब देश की विशाल जनसँख्या पूरे विश्व को एक बड़े बाजार के रूप में दिखाई दे रही है तब देश के वित्त मंत्री के लिए आज़ादी के समय की नीतियों पर प्रहार करना बहुत आसान हो सकता है पर जब अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुए भारत के पास संसाधनों और नीतियों की कमी थी तब के समय में देश की आर्थिक विकास दर को एक प्रतिशत रख पाना भी अपने आप में किसी उपलब्धि से कम नहीं था. समय और परिस्थितियों के अनुसार नेताओं और राष्ट्रों के द्वारा लिए गए निर्णयों की समीक्षा नहीं की जा सकती है क्योंकि परिस्थिति और समय बदल जाने के कारण जो कुछ तब किया गया था आज वह अप्रासंगिक भी लगने लगता है. आज़ादी के बाद जब अंग्रेजों को देश से अपने व्यापार आदि को भी एक हद तक समेटना पड़ा था उसके लिए केवल नेहरू और उनकी नीतियों को कैसे दोषी ठहराया जा सकता है क्योंकि तब देश में तब अंग्रेजों के विरुद्ध देश का आमजन खड़ा था और उनसे किसी भी तरह के व्यापार आदि पर बात करने को लेकर भी सशंकित तथा विरोधी रहा करता था तो उस समय नेहरू के सामने क्या आर्थिक उदारीकरण करने के विकल्प उपलब्ध भी थे इस बात पर भी विचार किये जाने की आवश्यकता है. देश ने एक ऐसा भी समय देखा है जब उसके पास सामान्य काम काज करने के लिए आवश्यक निधियों की भी कमी हो गयी थी और नरसिंहराव तथा मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधारों को समय के साथ लागू करते हुए आज केंद्र और राज्य सरकारों के ख़ज़ाने को भरने का काम कर दिया है.
भाजपा जैसी पार्टी के कार्यकर्ताओं के सामने खड़े होकर उनके तथा संघ में सिखाई गयी विभिन्न बातों के अनुरूप भाषण देना और उस पर तालियां बजवाना भाजपा नेता अरुण जेटली के लिए कुछ समय के लिए सुहाना हो सकता है पर जब देश के रिज़र्व बैंक के लिए एक अदद गवर्नर चुनने की बात आती है तो देश के पीएम और एफएम के रूप नेताओं के पास मनमोहन सिंह की दूरदृष्टि का कोई उत्तर नहीं होता है और वह संप्रग सरकार द्वारा नियुक्त किये गए और वर्तमान गवर्नर राजन के साथ तीन सालों से काम कर रहे ऊर्जित पटेल का कोई विकल्प नहीं खोज पाते हैं ? आर्थिक नीतियां इस तरह के लोकलुभावन भाषणों से नहीं चला करती हैं इस बात को अरुण जेटली को समझना होगा क्योंकि वे सुब्रह्मण्यम स्वामी की तरह केवल सांसद और भाजपा के नेता नहीं बल्कि देश के वित्त मंत्री भी हैं. पार्टी के मंचों पर अपने कार्यकर्ताओं से तालियां बजवाने के लिए कांग्रेस, नेहरू- गाँधी परिवार पर हर मंच से हमले करना संघ की विचारधारा में जन्मी राजनैतिक पार्टी भाजपा के लिए अपरिहार्य ही होता है पर कुछ मामलों को इस तरह के विवादों से दूर भी रखना चाहिए क्योंकि स्वामी को अपरोक्ष रूप से मोदी ने भी सन्देश देने की कोशिश की पर संघ का हाथ सर पर होने के कारण अब वे फिर से जाते हुए राजन पर हमले करने से बाज नहीं आ रहे हैं तो आने वाले समय में आर्थिक पैमाने पर खरे न उतर पाने वाले जेटली का मंत्रालय भी बदला जा सकता है इस बात की भी पूरी संभावनाएं नज़र आने लगी हैं ?
आज मोदी सरकार अपने दो साल के कार्यकाल में देश की जिस बढ़ती हुई विकास दर का ढिंढोरा पीट रही है असल में वह केवल आंकड़ेबाजी से अधिक कुछ भी नहीं है क्योंकि यदि २०१४ में बदले गए आधार वर्ष के पूर्व के मानकों के अनुरूप देखा जाये तो देश की आर्थिक विकास दर बढ़ने के स्थान पर घट गयी है जिसका असर विभिन्न क्षेत्रों पर पड़ता हुआ देखा भी जा रहा है. भारत जैसे कृषि प्रधान देश में आर्थिक गतिविधियां केवल कृषि विकास के साथ ही सही ढंग से चल सकती हैं क्योंकि जब तक देश का किसान संपन्न नहीं होगा तब तक देश के आर्थिक प्रगति के चक्के को केवल शहरों के भरोसे ही लंबे समय तक नहीं चलाया जा सकता है. मोदी सरकार भी शुरू में इसी गफलत में रही कि ग्रामीण क्षेत्र में विभिन्न योजनाओं में अधिक धनराशि देने के स्थान पर उसे अन्य प्रगति के साधनों में लगाया जाये पर सुस्त मानसून और गलत नीति के कारण ही उसे मनरेगा जैसी योजनाओं में अधिक धन डालने को मजबूर होना ही पड़ा है जो कि नेहरू के मॉडल पर ही आधारित है. जेटली को इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि क्या आज़ादी के समय देश में इतना आधारभूत ढांचा उपलब्ध भी था जैसा आज बनाया जा चुका है क्योंकि जिस विकास की बातें उनके द्वारा की जा रही हैं क्या वे केवल निजी क्षेत्र में ही संभव है ? आज जब देश के पास कर संग्रह का मज़बूत ढांचा है और वैश्विक कारणों से सरकार के पास बड़ी मात्रा में धन इकठ्ठा हो रहा है तो इस परिस्थिति में वित्त मंत्री के लिए आलोचना करना बहुत आसान है पर देश के विकास की मज़बूत नींव नेहरू सरकार द्वारा शुरू किये गए सार्वजनिक उपक्रमों ने ही रखी थी जिनका मोटा लाभांश सरकार की तरफ से लेते समय आज भी उनके प्रबंधकों के साथ मुस्कुराते हुए जेटली को आसानी से देखा जा सकता है.
नेहरू की नीतियों की आलोचना करते समय जेटली यह भूल जाते हैं कि भारतीय ढांचे में काम कर सकने लायक बहुराष्ट्रीय कंपनियों को नेहरू इंदिरा की सरकारों ने तीन दशकों तक नियंत्रित रूप में काम करने की पूरी छूट दे रखी थी पर जब १९७७ में आज की भाजपा के कई बड़े नेताओं के सरकार में मंत्री रहते होते हुए इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को एक तरह से देश से निकाला गया था उस बारे में जेटली के क्या विचार हैं ? तब के संघ की विचारधारा के अनुरूप काम करने वाले अटल अडवाणी और अन्य नेताओं ने मोरारजी सरकार का विरोध क्यों नहीं किया था और क्या जेटली अपने इन शीर्ष नेताओं के उन फैसलों में शामिल होने के लिए उनकी आलोचना करने की हिम्मत आज रखते हैं ? नहीं क्योंकि इस सरकार के पास देश, काल, और परिस्थिति पर विचार किये बिना ही देश को आज पूरे विश्व में आर्थिक रूप से सशक्त करने में किये गए कांग्रेस के योगदान को कम करके आंकना ही है. एक बार पुराने आधार वर्ष पर विकास दर की गणना कर दी जाये तो वित्त मंत्रालय के साथ पीएमओ तक के दावों पर पड़ा पर्दा उठ जायेगा पर तब तक देश को आंकड़ेबाजी के दम पर विकास के पथ पर बढ़ता हुआ बताकर राजनैतिक लाभ लेने का सिलसिला चलता ही रहने वाला है.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
भाजपा जैसी पार्टी के कार्यकर्ताओं के सामने खड़े होकर उनके तथा संघ में सिखाई गयी विभिन्न बातों के अनुरूप भाषण देना और उस पर तालियां बजवाना भाजपा नेता अरुण जेटली के लिए कुछ समय के लिए सुहाना हो सकता है पर जब देश के रिज़र्व बैंक के लिए एक अदद गवर्नर चुनने की बात आती है तो देश के पीएम और एफएम के रूप नेताओं के पास मनमोहन सिंह की दूरदृष्टि का कोई उत्तर नहीं होता है और वह संप्रग सरकार द्वारा नियुक्त किये गए और वर्तमान गवर्नर राजन के साथ तीन सालों से काम कर रहे ऊर्जित पटेल का कोई विकल्प नहीं खोज पाते हैं ? आर्थिक नीतियां इस तरह के लोकलुभावन भाषणों से नहीं चला करती हैं इस बात को अरुण जेटली को समझना होगा क्योंकि वे सुब्रह्मण्यम स्वामी की तरह केवल सांसद और भाजपा के नेता नहीं बल्कि देश के वित्त मंत्री भी हैं. पार्टी के मंचों पर अपने कार्यकर्ताओं से तालियां बजवाने के लिए कांग्रेस, नेहरू- गाँधी परिवार पर हर मंच से हमले करना संघ की विचारधारा में जन्मी राजनैतिक पार्टी भाजपा के लिए अपरिहार्य ही होता है पर कुछ मामलों को इस तरह के विवादों से दूर भी रखना चाहिए क्योंकि स्वामी को अपरोक्ष रूप से मोदी ने भी सन्देश देने की कोशिश की पर संघ का हाथ सर पर होने के कारण अब वे फिर से जाते हुए राजन पर हमले करने से बाज नहीं आ रहे हैं तो आने वाले समय में आर्थिक पैमाने पर खरे न उतर पाने वाले जेटली का मंत्रालय भी बदला जा सकता है इस बात की भी पूरी संभावनाएं नज़र आने लगी हैं ?
आज मोदी सरकार अपने दो साल के कार्यकाल में देश की जिस बढ़ती हुई विकास दर का ढिंढोरा पीट रही है असल में वह केवल आंकड़ेबाजी से अधिक कुछ भी नहीं है क्योंकि यदि २०१४ में बदले गए आधार वर्ष के पूर्व के मानकों के अनुरूप देखा जाये तो देश की आर्थिक विकास दर बढ़ने के स्थान पर घट गयी है जिसका असर विभिन्न क्षेत्रों पर पड़ता हुआ देखा भी जा रहा है. भारत जैसे कृषि प्रधान देश में आर्थिक गतिविधियां केवल कृषि विकास के साथ ही सही ढंग से चल सकती हैं क्योंकि जब तक देश का किसान संपन्न नहीं होगा तब तक देश के आर्थिक प्रगति के चक्के को केवल शहरों के भरोसे ही लंबे समय तक नहीं चलाया जा सकता है. मोदी सरकार भी शुरू में इसी गफलत में रही कि ग्रामीण क्षेत्र में विभिन्न योजनाओं में अधिक धनराशि देने के स्थान पर उसे अन्य प्रगति के साधनों में लगाया जाये पर सुस्त मानसून और गलत नीति के कारण ही उसे मनरेगा जैसी योजनाओं में अधिक धन डालने को मजबूर होना ही पड़ा है जो कि नेहरू के मॉडल पर ही आधारित है. जेटली को इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि क्या आज़ादी के समय देश में इतना आधारभूत ढांचा उपलब्ध भी था जैसा आज बनाया जा चुका है क्योंकि जिस विकास की बातें उनके द्वारा की जा रही हैं क्या वे केवल निजी क्षेत्र में ही संभव है ? आज जब देश के पास कर संग्रह का मज़बूत ढांचा है और वैश्विक कारणों से सरकार के पास बड़ी मात्रा में धन इकठ्ठा हो रहा है तो इस परिस्थिति में वित्त मंत्री के लिए आलोचना करना बहुत आसान है पर देश के विकास की मज़बूत नींव नेहरू सरकार द्वारा शुरू किये गए सार्वजनिक उपक्रमों ने ही रखी थी जिनका मोटा लाभांश सरकार की तरफ से लेते समय आज भी उनके प्रबंधकों के साथ मुस्कुराते हुए जेटली को आसानी से देखा जा सकता है.
नेहरू की नीतियों की आलोचना करते समय जेटली यह भूल जाते हैं कि भारतीय ढांचे में काम कर सकने लायक बहुराष्ट्रीय कंपनियों को नेहरू इंदिरा की सरकारों ने तीन दशकों तक नियंत्रित रूप में काम करने की पूरी छूट दे रखी थी पर जब १९७७ में आज की भाजपा के कई बड़े नेताओं के सरकार में मंत्री रहते होते हुए इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों को एक तरह से देश से निकाला गया था उस बारे में जेटली के क्या विचार हैं ? तब के संघ की विचारधारा के अनुरूप काम करने वाले अटल अडवाणी और अन्य नेताओं ने मोरारजी सरकार का विरोध क्यों नहीं किया था और क्या जेटली अपने इन शीर्ष नेताओं के उन फैसलों में शामिल होने के लिए उनकी आलोचना करने की हिम्मत आज रखते हैं ? नहीं क्योंकि इस सरकार के पास देश, काल, और परिस्थिति पर विचार किये बिना ही देश को आज पूरे विश्व में आर्थिक रूप से सशक्त करने में किये गए कांग्रेस के योगदान को कम करके आंकना ही है. एक बार पुराने आधार वर्ष पर विकास दर की गणना कर दी जाये तो वित्त मंत्रालय के साथ पीएमओ तक के दावों पर पड़ा पर्दा उठ जायेगा पर तब तक देश को आंकड़ेबाजी के दम पर विकास के पथ पर बढ़ता हुआ बताकर राजनैतिक लाभ लेने का सिलसिला चलता ही रहने वाला है.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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