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शनिवार, 17 दिसंबर 2016

सड़क, संसद और संविधान

                                                               आज़ादी के बाद संविधान सभा ने जिस लगन के साथ तात्कालिक परिस्थितियों में विश्व के बड़े लोकतंत्रों के संविधान के पहलुओं पर विचार करने के बाद  जिस तरह से भारतीय संविधान में महत्वपूर्ण बातों और नियमों का समावेश किया था आज समय और नेताओं के साथ राजनैतिक दलों की सोच में बड़े बदलाव के चलते आज उनमें से कुछ नियम सदन की कार्यवाही को सुचारू रूप से चलने में बाधक बनने लगे हैं पर दुर्भाग्य से आज भी सभी राजनैतिक दल इस समस्या पर विचार करने के स्थान पर केवल अपने समय को काटने की नीति पर ही चलना पसंद करने लगे हैं जिससे जहाँ सत्ता पक्ष को असहज स्थिति का सामना करने से बचने में सहायता मिलती है वहीं विपक्ष भी संख्या बल में कम होने के बाद भी सरकार को हंगामें के साथ सरकार को सदन में रोकने में सहायता मिलती है. सदन में दोनों की इस तरह की खींच तान में केवल आम लोगों की समस्याओं पर चर्चा नहीं हो पाती है और भारतीय संसद की मर्यादा भी तार तार होती दिखाई देती है. इस परिस्थिति के लिए केवल एक पक्ष को दोषी दिए जाने के स्थान पर पूरे राजनैतिक तंत्र को ही दोषी ठहराना उचित होगा क्योंकि इस मामले में सभी एक जैसा ही व्यवहार किया करते हैं जिससे सदन के बारे में आमलोगों की राय बिगड़ती हुई दिखाई देती है.
                                                   इस बार जिस तरह से नियम १८४ और १९३ में से किस पर नोटबंदी पर चर्चा हो यह मामला सदन में अधिक महत्वपूर्ण हो गया जबकि मोटबंदी पर दोनों पक्षों की तरफ से इस पर गहन चर्चा की आवश्यकता भी थी. सरकार अपने स्तर से जहाँ इसके लाभ गिना सकती थी वहीं नोटबंदी से सहमत विपक्ष भी आसानी से जनता को होने वाली परेशानियों को लेकर सरकार को घेर सकता था पर दोनों ने ही सदन को केवल एक दूसरे पर आरोप लगाने के एक माध्यम से अधिक कुछ भी नहीं समझा. संसदीय लोकतंत्र में यह माना जाता है कि पीठासीन अधिकारी और सरकार पर सदन को सुचारू रूप से चलाने की ज़िम्मेदारी होती है पर इसका मतलब यह भी नहीं होता है कि विपक्ष किसी भी परिस्थिति में सरकार के खिलाफ कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हो जाता है ? यदि देश के पांच राज्यों में अगले साल चुनाव न होते तो संभवतः इस मुद्दे पर कुछ सार्थक चर्चा भी हो जाती क्योंकि सरकार के काले धन पर २०१४ में किये गए वायदों को कसौटी पर खरा उतरने के लिए अब कुछ करना भी था जिससे उसकी विश्वसनीयता बनी रहे पर इस गंभीर मुद्दे पर देश में शुरू से ही जिस तरह की राजनीति की जाती रहती है उसके चलते ही दोनों पक्ष अपने को ही सही मानते हैं और दूसरे को गलत ठहराने के चक्कर में संसदीय लोकतंत्र को नीच दिखाने से भी नहीं चूकते हैं.
                                            क्या पूरे देश में अब इस तरह के विचार की आवश्यकता नहीं है जिसमें आज के समय में संसदीय परंपराओं के अनुपालन और नियमों में सुधार के लिए एक उच्च अधिकार प्राप्त संवैधानिक समिति का गठन किया जाये जिसमें संसद और सभी राज्यों के विधानमंडलों के पीठासीन अधिकारियों के साथ लंबी संसदीय परमपरा के वाहक रहे सांसद, विधायकों को भी रखा जाये जिसके सुझावों पर सदन में अनुशासन और गंभीरता के साथ काम किये जाने को लेकर सही दिशा में बिना अवरोधों के बढ़ने के लिए नियमों में कड़े सुधार किये जा सकें जिससे भविष्य में कोई भी नेता वह चाहे किसी भी दल का क्यों न हो अपने अनुचित व्यहार से सदन की कार्यवाही बाधित करने से दूर रहना भी सीख सके. एक उदाहरण है कि हिन्दू कोड बिल पर चर्चा पर विरोधी दल से आलोचना होने पर पहले तो नेहरू ने बहुमत का दावा किया पर सदस्य के विचारों के सही होने पर खुद ही उन्होंने उन्हें संशोधन के रूप में विधेयक में शामिल करा दिया था पर आज क्या सदन में उचित विरोध और इस तरह एक समग्र संशोधन की कल्पना की जा सकती है ? इस बात पर अब देश के नेताओं को गंभीर विचार करना ही होगा क्योंकि संसदीय अवरोध से किसी दल नहीं वरन देश के नेताओं की स्वीकार्यता पर प्रभाव पड़ता है कहीं ऐसा न हो कि जनता एक बार फिर से नेताओं की इस तरह की नौटंकी से ऊब कर वोट डालने की तरफ से उदासीन होना शुरू हो जाये और जो आम सहभागिता वर्षों के प्रयास के बाद बढ़ी है वह अपने आप ही निचले पायदान की तरफ चली जाये ? देश का राजनैतिक तंत्र चेत जाये क्योंकि कहीं ऐसे स्वर न सुनाई दे जाएँ कि सिंघासन खाली करो अब जनता आती है.     
 
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