मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 20 मई 2017

तीन तलाक़

                                  मुसलमानों में तीन तलाक़ की स्थिति को लेकर जिस तरह से हर पक्ष अपनी अपनी बातों को लेकर स्पष्टीकरण देने में लगा हुआ है उससे यही लगता है कि यह पूरा मामला इस्लाम में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों से सम्बंधित होते हुए भी कानूनी उलझनों और बिना बात के बयानों में उलझता जा रहा है. किसी भी देश में नागरिकों को मिले मौलिक अधिकार संविधान द्वारा प्रदत्त हैं और भारतीय संविधान लिंग, धर्म, जाति, भाषा और नस्ल के आधार पर किसी भी भेदभाव के खिलाफ अपनी मंशा दिखाता है पर साथ ही मौलिक अधिकारों के अनुपालन में सभी नागरिकों से यह अपेक्षा भी रखता है कि वे संवैधानिक और कानूनी मुद्दों से टकराने वाले विभिन्न धार्मिक मुद्दों पर स्वयं ही कोई राह निकालने की मंशा भी रखें जिससे हर बात पर अनावश्यक रूप से विवाद न खड़े हो सकें. निश्चित तौर पर तीन तलाक़ की व्यवस्था इस्लामी निकाह में है पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट में यह स्वीकार किया कि वह भी मानता है कि तीन तलाक़ का ज़िक्र पवित्र क़ुरान में नहीं है उससे यही लगता है कि बोर्ड में भी तीन तलाक़ को लेकर मतभेद रहे हैं कि इस मुद्दे से किस तरह से निपटा जाये जिससे महिलाओं के अधिकारों की समग्र रक्षा भी हो सके और समाज की इस परंपरा पर कोई अनावश्यक रूप से उंगली भी न उठा सके.
                                 भारतीय मीडिया में जिस तरह से तीन तलाक़ को ख़त्म किये जाने की बात कही जा रही है असलियत में वैसा कुछ भी नहीं है क्योंकि हर पक्ष अपनी आवश्यकताओं के अनुसार बयान देने में लगा हुआ है और वह तथ्यों को अपने अनुसार मोड़ने का काम भी करने से नहीं चूक रहा है. मसला तीन तलाक़ को पूर्ण रूप से ख़त्म करने का कभी भी नहीं रहा है क्योंकि इस व्यवस्था को इस्लामिक माना जाता है अभी भारत में तीन तलाक़ की जो व्यवस्था चल रही है उसका क़ुरान में कहीं भी ज़िक्र नहीं है यह बात अब बोर्ड ने भी मानी है क्योंकि एक साँस में तीन बार तलाक़ बोले जाने को वर्षों दशकों पहले कई इस्लामिक देशों में खत्म किया जा चुका है जिसमें पाकिस्तान और सऊदी अरब जैसे देश भी शामिल हैं. देश की आम जनता जिसमें हिन्दू मुसलमान सभी शामिल है उनको यह लग रहा है कि इस बार कोर्ट या सरकार तीन तलाक़ को ही ख़त्म कर देगी जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है क्योंकि मामला असलियत में तलाक़ दिए जाने की प्रक्रिया पर ही टिका हुआ है जिससे भ्रम की स्थिति बनती जा रही है. यह भी अच्छी बात है कि खुद बोर्ड की तरफ से भी निकाह के समय ही मुस्लिम महिलाओं को तलाक़ से सम्बंधित और अधिकार दिए जाने सम्बन्धी संशोधनों और मुस्लिम समाज में तीन तलाक़ के वर्तमान स्वरूप के बारे में स्पष्टीकरण देने और समाज को जागरूक करने की बात की जा रही है क्योंकि समाज के अंदर की कमियों को समाज के प्रबुद्ध वर्ग और समाज के लिए काम करने वाले संगठनों के माध्यम से ही बड़े परिवर्तन बिना किसी विरोध के आसानी से किये जा सकते हैं.
                           सुप्रीम कोर्ट की संविधानिक पीठ ने इस मामले में अपना निर्णय सुरक्षित कर लिया है और आने वाले समय में उसका इस मुद्दे पर निर्णय भी आ सकता है ऐसी स्थिति में जो भी निर्णय हो पर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को अपने स्तर से भारत के इस्लामी समाज में वे वदलाव लाने के बारे में प्रयास शुरू करने ही चाहिए जिससे केवल तीन तलाक़ ही नहीं बल्कि अन्य मुद्दों पर भी जहाँ मुसलमानों को विभिन्न तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है उन पर भी सुधारात्मक प्रयास शुरू करने चाहिए. इस प्रयास से जहाँ पूरे समाज में विमर्श और सुधार की प्रक्रिया को शुरू करने में आसानी होगी वहीं आस्था से जुड़े वे मुद्दे जो समय के साथ परंपरा में बदल गए उन पर भी क़ुरान के अनुसार चलने की व्याख्या की जा सकेगी. मुस्लिम समाज में इस्लाम धर्म से जुड़े उन मसलों के बारे में जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता को यदि बोर्ड समझता है तो यह भारत के मुसलमानों और देश के लिए अच्छा ही साबित होगा क्योंकि मुद्दों को टालने से उन पर विवाद बढ़ते हैं जो अंत में न्यायिक समीक्षा और कानून बनाने की स्थिति तक चले जाते हैं. यदि विभिन्न इस्लामिक देशों में तीन तलाक़ के भारतीय स्वरुप को गैर इस्लामिक किया जा चुका है तो मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को भी इस मुद्दे पर तभी निर्णय ले लेना चाहिए था जिससे इस्लाम के मूल सिद्धांतों की अनदेखी किये बिना ही सही रास्ते पर चलने के प्रति समाज में जागरूकता बढ़ जाती.          
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

1 टिप्पणी:

  1. आपका विश्लेषण बेहद सटीक है। उम्मीद है आपको बिहार परीक्षा परिणामों पर लिखित यह व्यंगात्मक Hindi Blog पसंद आएगा।

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