ऐसा नहीं है कि २०१९ में देश में पहली बार कोई आम चुनाव हो रहे हैं पर वर्तमान में चल रहे चुनावों में जिस तरह से हर दल के शीर्ष नेता द्वारा मर्यादाओं का उल्लंघन किया जा रहा है वह भले ही उस सम्बंधित दल को कुछ वोट दिलवाने में मदद कर दे पर इससे हमारे उस लोकतंत्र की गंभीर खामी ही सामने आती है जिसमें चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था भी चाह कर कुछ ठोस नहीं कर पाती है. यह सही है कि आज चुनाव प्रचार को जिस स्तर पर ले जाया गया है उसमें पुरानी पीढ़ी के नेता अपने आपको सहज नहीं पाते हैं फिर भी उनके पास कोई अन्य रास्ता भी नहीं बचता है क्योंकि यदि उन्हें राजनीति में रहना है तो इस सबका सामना करना ही होगा. इस मामले में सभी दलों ने एक जैसा रवैया अपना रखा है इसलिए किसी एक दल की तरफ इंगित करने से काम नहीं चलने वाला है फिर भी क्या देश के राजनैतिक दलों को यह नहीं सोचना चाहिए कि चुनाव जीतने-हारने के बाद कमोबेश उन्हीं चुनिंदा बड़े नेताओं के साथ जब सदन में बैठना है तो विमर्श का स्तर इतना घटिया करने की आवश्यकता क्या है?
आज की परिस्थिति में यदि देखा जाये तो हर नेता किसी भी तरह से दुसरे दल के नेता को नीचे दिखाना ही अपनी राजनीति के लिए महत्वपूर्ण मानने लगा है जिससे लोकतंत्र और शिष्टाचार की वह सामान्य सीमा रेखा भी कई बार अनावश्यक रूप से लांघी जानी लगी है जिसको अभी तक सदन या चुनावों में लांघना उचित नहीं मना जाता था। इस बात पर विचार करना भी आवश्यक है कि आखिर देश के नेताओं की यह स्थिति क्यों बन गयी है कि जो अपने चुनावी घोषणापत्रों में किये जाने वाले विकास के लम्बे चौड़े वायदों को भूलकर इतनी घटिया बातचीत पर उतर आते हैं जिसका कोई औचित्य नहीं दिखता है? संभवतः आज नेताओं को यह लगने लगा है कि जनता से चाहे कुछ भी कह दो पर जब चुनाव हों तब जनता की बातों को गंभीर मुद्दों की तरफ मत जाने दो और हलकी छिछली राजनीति में को उलझाकर देश के समक्ष खड़े वास्तविक मुद्दों को दूर दफ़न कर दो जिससे भावनाओं में बहती हुई जनता अपनी प्राथमिकताओं को भूलकर उन्हीं घटिया बातों में उलझकर गंभीर सवाल करने की शक्ति खो दे?
क्या यह सही समय है कि राजनेता अपने स्तर से एक बार फिर से चुनावी माहौल की गरिमा को वापस लौटाने का काम शुरू करें? क्या हमारे विविधता भरे देश में अब इस बात की आवश्यकता नहीं है कि अन्य अखिल भारतीय सेवाओं की तरह चुनाव सुधार करते हुए एक चुनाव से सम्बंधित कैडर भी बनाया जाये जिसमें शुरुवात से ही चुनावी माहौल को समझने के लिए अधिकारियों को तैयार किया जाये और उनमें से ही वरिष्ठ लोगों को संवैधानिक बाध्यता के साथ शीर्ष स्तर पर काम करने का अवसर दिया जाये ? ऐसा करने से चुनाव आयोग की गरिमा तो बढ़ेगी ही साथ नेताओं को अपने प्रिय लोगों को चुनाव आयोग में बैठाने की परंपरा पर भी लगाम लगायी जा सकेगी। निश्चित तौर पर चुनाव आयोग ने १९९१ में शेषन युग के बाद इस बार सबसे अधिक बेबसी दिखाई है क्योंकि शेषन के बाद लगभग हर चुनाव आयुक्त ने नियमों का कड़ाई से अनुपालन किया और जनता में आयोग की साख को मज़बूत किया पर वर्तमान में आयोग ने अपनी उस बनी हुई साख को गंवाना शुरू कर दिया है और कोई नहीं जानता है कि यह अभी और कितने नीचे तक जाने वाला है? देश को मज़बूत नेता ही नहीं बल्कि मज़बूत संवैधानिक संस्थाओं की भी बहुत अधिक आवश्यकता है क्योंकि जब तक सभी सम्बंधित तंत्र मज़बूत नहीं होंगे तब तक लोकतंत्र को मज़बूत करना केवल एक सपना ही रहने वाला है.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आज की परिस्थिति में यदि देखा जाये तो हर नेता किसी भी तरह से दुसरे दल के नेता को नीचे दिखाना ही अपनी राजनीति के लिए महत्वपूर्ण मानने लगा है जिससे लोकतंत्र और शिष्टाचार की वह सामान्य सीमा रेखा भी कई बार अनावश्यक रूप से लांघी जानी लगी है जिसको अभी तक सदन या चुनावों में लांघना उचित नहीं मना जाता था। इस बात पर विचार करना भी आवश्यक है कि आखिर देश के नेताओं की यह स्थिति क्यों बन गयी है कि जो अपने चुनावी घोषणापत्रों में किये जाने वाले विकास के लम्बे चौड़े वायदों को भूलकर इतनी घटिया बातचीत पर उतर आते हैं जिसका कोई औचित्य नहीं दिखता है? संभवतः आज नेताओं को यह लगने लगा है कि जनता से चाहे कुछ भी कह दो पर जब चुनाव हों तब जनता की बातों को गंभीर मुद्दों की तरफ मत जाने दो और हलकी छिछली राजनीति में को उलझाकर देश के समक्ष खड़े वास्तविक मुद्दों को दूर दफ़न कर दो जिससे भावनाओं में बहती हुई जनता अपनी प्राथमिकताओं को भूलकर उन्हीं घटिया बातों में उलझकर गंभीर सवाल करने की शक्ति खो दे?
क्या यह सही समय है कि राजनेता अपने स्तर से एक बार फिर से चुनावी माहौल की गरिमा को वापस लौटाने का काम शुरू करें? क्या हमारे विविधता भरे देश में अब इस बात की आवश्यकता नहीं है कि अन्य अखिल भारतीय सेवाओं की तरह चुनाव सुधार करते हुए एक चुनाव से सम्बंधित कैडर भी बनाया जाये जिसमें शुरुवात से ही चुनावी माहौल को समझने के लिए अधिकारियों को तैयार किया जाये और उनमें से ही वरिष्ठ लोगों को संवैधानिक बाध्यता के साथ शीर्ष स्तर पर काम करने का अवसर दिया जाये ? ऐसा करने से चुनाव आयोग की गरिमा तो बढ़ेगी ही साथ नेताओं को अपने प्रिय लोगों को चुनाव आयोग में बैठाने की परंपरा पर भी लगाम लगायी जा सकेगी। निश्चित तौर पर चुनाव आयोग ने १९९१ में शेषन युग के बाद इस बार सबसे अधिक बेबसी दिखाई है क्योंकि शेषन के बाद लगभग हर चुनाव आयुक्त ने नियमों का कड़ाई से अनुपालन किया और जनता में आयोग की साख को मज़बूत किया पर वर्तमान में आयोग ने अपनी उस बनी हुई साख को गंवाना शुरू कर दिया है और कोई नहीं जानता है कि यह अभी और कितने नीचे तक जाने वाला है? देश को मज़बूत नेता ही नहीं बल्कि मज़बूत संवैधानिक संस्थाओं की भी बहुत अधिक आवश्यकता है क्योंकि जब तक सभी सम्बंधित तंत्र मज़बूत नहीं होंगे तब तक लोकतंत्र को मज़बूत करना केवल एक सपना ही रहने वाला है.
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