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मंगलवार, 29 मई 2012

यूपी विधान सभा का दंगल


        जिस बात की आशंका थी की प्रदेश में शुरू हो रहे नयी विधान सभा के पहले सत्र में काम काज को प्रभावित करने की कोशिशें विपक्ष द्वारा की जायेंगीं ठीक वैसा ही सदन के शुरू होते ही दिखाई दिया. प्रदेश में सत्ता खो चुकी बसपा ने जिस तरह से पहले दिन से ही आक्रामक रुख अपनाया वह पहले से ही निर्धारित हो गया था जब सरकार द्वारा बुलाई गयी शिष्टाचार बैठक में अनुपस्थित रहकर बसपा ने डॉ अम्बेडकर की अध्यक्षता में बनाये देश के संविधान के प्रति अपनी रूचि साफ़ कर दी थी ? आज़ादी के समय इस बात के महत्त्व को समझा गया था और केवल सत्ता या विपक्ष के बंटवारे को इस तरह से नहीं माना गया था कि सदन में दुश्मनों जैसा व्यवहार किया जाने लगे. सामान्य शिष्टाचार के तहत सरकार सत्र शुरू होने से पहले सर्वदलीय बैठक बुलाती है जिसमें वह अनौपचारिक रूप से विपक्ष से सहयोग भी मांगती है और प्रदेश के लिए बनायीं जाने वाली नयी नीतियों के बारे में भी कुछ विचार कर लिया करती थी पर आज इस प्रक्रिया को जिस तरह से कुछ दल और ख़ास तौर पर बसपा कोई भाव नहीं देना चाहती है उससे प्रदेश और देश का भला नहीं होने वाला है.
         सदन में कानून व्यवस्था को लेकर जिस तरह से हो हल्ला मचाया गया उससे यही लगता है कि बसपा ने सदन को आसानी से न चलने देने के बारे में मन बना रखा है जिससे यह स्पष्ट हो जाता हा कि सत्ता जाने का गम अभी तक बसपा को सता रहा है जबकि उसे मुख्य विपक्षी दल होने के कारण उसे अब सदन में सरकार को सभी मुद्दों पर बहस करके घेरना चाहिए पर बसपा में जिस तरह से केवल ऊपर के आदश का ही अनुपालन किया जाता है उससे कहीं न कहीं देश के संविधान को ठेस पहुँचती है ? ऐसा भी नहीं है कि देश के अन्य दल भी कभी न कभी इस तरह की हरकतों में शामिल नहीं होते हैं पर लोकतान्त्रिक मूल्यों का जिस स्तर पर बसपा द्वारा उल्लंघन किया जाता है वह किसी से भी छिपा नहीं है. माया द्वारा जिस तरह से प्रदेश से सत्ता की चाभी हाथ से जाते ही दिल्ली में डेरा डाल लिया जाता है उससे भी कहीं न कहीं उनकी पार्टी कमज़ोर ही होती है क्योंकि सत्ता होने के समय वे सारी कमान अपने पास रखती है पर सत्ता के जाते ही वे इसे अपनी पार्टी में आदेश एक साथ अपने ही पास रखती हैं. यदि वे प्रदेश के विधान मंडल में ही रहें तो उससे निश्चित तौर पर बसपा के विधायकों के लिए संसदीय मूल्यों को सीखना और भी आसान हो जायेगा पर शायद उन्हें केवल डॉ आंबेडकर के नाम से ही मतलब है उनके आदर्शों के बारे में वे सोचती ही नहीं हैं ?
        यह अच्छा ही रहा कि अन्य विरोधी दलों ने इस मसले पर सरकार को अब अभी और समय देने के बारे में सोचा है क्योंकि दो महीने का समय किसी भी सरकार के लिए बहुत कुछ करने का नहीं होता है और इसके द्वारा जो भी नीतियां बनायीं जा रही हैं उनका असर दिखाई देने में कम से कम ६ महीने तो लगने ही वाले हैं. फिर भी प्रदेश के लिए के सोच के साथ काम करने की अखिलेश की मंशा ने पूरे देश का ध्यान उनकी तरफ तो खींचा ही है और साथ ही जिस तरह से उन्होंने पार्टी स्तर पर कुछ कड़े फैसले लेकर यह संदेश भी देने की कोशिश भी की है कि इस बार सपा सरकार पहले से भिन्न ही दिखाई देने वाली है. सपा से अभी तक जिस तरह के नेता जुड़े हुए थे उन पर नियंत्रण करने की रणनीति के तहत ही मुलायम ने अभी तक अखिलेश को ही सपा का प्रदेश प्रमुख पद भी दे रखा है जिससे पार्टी स्तर पर कोई भी निर्णय वे सीधे पार्टी के प्रमुख के रूप में तुरंत ही ले सकें. जिस तरह से अखिलेश बिलकुल नए क्षेत्र से आकर प्रदेश की बागडोर को संभल चुके हैं उस स्थिति में अब उनको कम से कम ६ माह का समय तो सभी को देना ही चाहिए जिससे उनकी सरकार का सही आंकलन भी किया जा सके. तब तक सभी राजनैतिक दलों को संसदीय मर्यादा का ध्यान तो रखना ही चाहिए.
 

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