चुनाव आयोग ने आगामी विधान सभा चुनावों में अपने स्तर से "इनमें से कोई नहीं" नोटा विकल्प का पहली बार प्रयोग करने से सम्बंधित सभी तैयारियां पूरी कर ली हैं और उसे यह भी स्पष्ट कर दिया है कि इस बार होने वाले पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों के साथ ही देश में इसकी शुरुवात हो जायेगी और इसे गुलाबी रंग से प्रदर्शित किया जायेगा जबकि आगामी लोकसभा चुनावों में यह सफ़ेद रंग में प्रदर्शित किया जायेगा. देश में राजनैतिक विकल्पों की बातें करते करते कई बार मतदाताओं के सामने ऐसे उम्मीदवार भी आ जाते हैं जिनका वे किसी भी स्तर पर समर्थन नहीं करना चाहते हैं और उन्हें ४९ ओ के विकल्प के बाद भी पीठसीन अधिकारी के असहयोग के कारण उस सुविधा का उपयोग करने में हमेशा ही बहुत कठिनाई होती रहती है पर इस विकल्प के उपलब्ध हो जाने से अब आम लोगों की यह परेशानी भी दूर होने की तरफ बढ़ गयी सी लगती है. आज भी देश में जिस तरह से नेताओं का व्यवहार रहा करता है उसके बाद यही कहा जा सकता है कि आने वाले समय में जनता और भी मजबूत होने वाली है.
आज़ादी के बाद एक समय ऐसा भी था जब आम लोग देश के लिए सरकार चुनने के लिए खुद ही आगे बढ़कर अपने कर्तव्य को निभाया करते थे पर जिस तरह से राजनाति में अपराधियों का संक्रमण हुआ और एक समय में नेताओं के सहयोगी रहे अपराधियों ने आगे बढ़कर खुद ही चुनाव लड़ना शुरू कर दिया उससे देश में लोकतंत्र की नींव ही हिल सी गयी पर अब सुप्रीम कोर्ट के कठोर निर्णयों के बाद जिस तरह से मजबूरी में ही सही अब नेताओं को कुछ सुधारात्मक क़दमों के लिए बाध्य होना पड़ रहा है वह देश और लोकतंत्र के लिए बहुत ही अच्छा संकेत है. देश के राजनैतिक तंत्र में जितनी गंदगी भर गयी है उससे एक दिन में निजात नहीं मिल सकती है इसलिए अब देश के लिए इस छोटे और महत्वपूर्ण क़दमों की शुरुवात ही बहुत बड़ा परिवर्तन है अभी चुनाव आयोग की तरफ से यह विकल्प के रूप में ही सामने आया है और भले ही इसमें पड़े वोट कुल किसी भी प्रत्याशी से अधिक क्यों न हों पर उससे प्रत्याशी की जीत हार पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा.
आज यदि जनता को यह विकल्प मिल गया है तो आने वाले समय में इसके अधिक महत्वपूर्ण होने की पूरी सम्भावनाएं भी खुलती नज़र आ रही है क्योंकि किसी भी परिस्थिति में केवल एक बार ऐसी शुरुवात ही आगे के बड़े परिवर्तनों का गवाह बनने की तरफ जाने वाली है. देश के राजनैतिक तंत्र में शुचिता और संविधान के प्रति आस्था दिखाने के ढोंग करने वाले नेताओं के लिए अब जनता के सामने किसी भी तरह की बाजीगरी करना उतना आसान नहीं रहने वाला है क्योंकि अब जल्दी ही इन नोटा वाले वोटों की गिनती से प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला भी होने लगेगा जिससे चुनाव के लिए किसी भी जिताऊ प्रत्याशी के स्थान पर अब राजनैतिक दलों को यह भी सोचना पड़ेगा कि कहीं गलत चुनाव से उसकी सम्भावनाएं ही न ख़त्म हो जाएँ ? फिलहाल कुछ भी हो पर इन आसन्न चुनावों का नाम भारतीय इतिहास में सिर्फ इसलिए लिया जायेगा कि इनसे ही चुनाव आयोग और जनता को देश के नेताओं को सुधरने के लिए मजबूर करने का एक बेहतर और कारगर विकल्प मिल गया था और देश के लिए सोचने के लिए नेताओं को एक बटन से ही विकल्पहीन कर दिया गया था.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आज़ादी के बाद एक समय ऐसा भी था जब आम लोग देश के लिए सरकार चुनने के लिए खुद ही आगे बढ़कर अपने कर्तव्य को निभाया करते थे पर जिस तरह से राजनाति में अपराधियों का संक्रमण हुआ और एक समय में नेताओं के सहयोगी रहे अपराधियों ने आगे बढ़कर खुद ही चुनाव लड़ना शुरू कर दिया उससे देश में लोकतंत्र की नींव ही हिल सी गयी पर अब सुप्रीम कोर्ट के कठोर निर्णयों के बाद जिस तरह से मजबूरी में ही सही अब नेताओं को कुछ सुधारात्मक क़दमों के लिए बाध्य होना पड़ रहा है वह देश और लोकतंत्र के लिए बहुत ही अच्छा संकेत है. देश के राजनैतिक तंत्र में जितनी गंदगी भर गयी है उससे एक दिन में निजात नहीं मिल सकती है इसलिए अब देश के लिए इस छोटे और महत्वपूर्ण क़दमों की शुरुवात ही बहुत बड़ा परिवर्तन है अभी चुनाव आयोग की तरफ से यह विकल्प के रूप में ही सामने आया है और भले ही इसमें पड़े वोट कुल किसी भी प्रत्याशी से अधिक क्यों न हों पर उससे प्रत्याशी की जीत हार पर कोई अंतर नहीं पड़ेगा.
आज यदि जनता को यह विकल्प मिल गया है तो आने वाले समय में इसके अधिक महत्वपूर्ण होने की पूरी सम्भावनाएं भी खुलती नज़र आ रही है क्योंकि किसी भी परिस्थिति में केवल एक बार ऐसी शुरुवात ही आगे के बड़े परिवर्तनों का गवाह बनने की तरफ जाने वाली है. देश के राजनैतिक तंत्र में शुचिता और संविधान के प्रति आस्था दिखाने के ढोंग करने वाले नेताओं के लिए अब जनता के सामने किसी भी तरह की बाजीगरी करना उतना आसान नहीं रहने वाला है क्योंकि अब जल्दी ही इन नोटा वाले वोटों की गिनती से प्रत्याशियों के भाग्य का फैसला भी होने लगेगा जिससे चुनाव के लिए किसी भी जिताऊ प्रत्याशी के स्थान पर अब राजनैतिक दलों को यह भी सोचना पड़ेगा कि कहीं गलत चुनाव से उसकी सम्भावनाएं ही न ख़त्म हो जाएँ ? फिलहाल कुछ भी हो पर इन आसन्न चुनावों का नाम भारतीय इतिहास में सिर्फ इसलिए लिया जायेगा कि इनसे ही चुनाव आयोग और जनता को देश के नेताओं को सुधरने के लिए मजबूर करने का एक बेहतर और कारगर विकल्प मिल गया था और देश के लिए सोचने के लिए नेताओं को एक बटन से ही विकल्पहीन कर दिया गया था.
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