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शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

खेल संघों में राजनेता

                                   देश के खेल संघों में जिस तरह से नेताओं का वर्चस्व रहा करता है उस स्थिति में आज देश में खेलों का पूरी तरह से बंटाधार ही हो गया है क्योंकि जो निर्णय खेल को नज़दीक से समझने वाले खिलाडी आसानी से ले सकते हैं उनके बारे में सही जानकारी न होने के कारण खेलों के विस्तार पर आज बहुत बुरा असर पड़ रहा है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हॉकी संघों को लेकर चल रहे विवाद के परिप्रेक्ष्य में चल रही सुनवाई के बीच इस बात को भी स्पष्ट रूप से कहा है कि खेल संघों की बागडोर केवल खिलाडियों के हाथों में ही होनी चाहिए जिससे देश में खेलों का स्तर सुधर कर विश्व स्तरीय हो सके. कोर्ट ने इस बात पर भी अपनी चिंता और नाराज़गी व्यक्त की कि एक समय ओलम्पिक पदकों को जीतने वाली हॉकी आज ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई करने के लिए संघर्ष करती नज़र आती है ? यह सही है कि हॉकी के साथ देश के किसी भी खेल संघ में खेलों पर ध्यान दिए जाने के स्थान पर अब राजनीति के माध्यम से राजनेता इन संघों पर कब्ज़ा ज़माने की फ़िराक़ में ही रहा करते हैं.
                                     कोर्ट ने इस बात पर भी नाराज़गी दिखायी कि आज सरकारें देश के खेल संघों पर नियंत्रण नहीं कर पा रही हैं और इससे खेलों पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है क्योंकि खेल संघों में नेताओं के बढ़ते हुए दखल के कारण जहाँ वहाँ पर गुटबाज़ी बढ़ रही है वहीं दूसरी तरफ खेलों पर पूरा ध्यान नहीं दिया जा रहा और उसका सीधा असर देश के अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शन में दिखायी भी देता है. जब तक नेताओं और उनके समर्थकों के हाथों से खेलों की बागडोर लेकर पूरी तरह से खिलाड़ियों के हाथों में नहीं सौंपी जायेगी तब तक किसी भी दशा में खेल में देश का  प्रदर्शन सुधर नहीं पायेगा. अब एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट के इस वक्तव्य के बाद सरकार पर एक राष्ट्रीय खेल नीति बनाकर खेल संघों को केवल खिलाडियों तक ही सीमित किये जाने के बारे में सोचना ही होगा क्योंकि जब तक खेलों को आज के युग में पेशेवर तरीके से नहीं लिया जायेगा तब तक खेलों का सुधार किसी भी तरह से नहीं किया जा सकता है और खेलों की राजनीति खेलों का बंटाधार करने में लगी रहेगी.
                                      देश ने आज़ादी के बाद खेलों में बहुत से सुखद पल जिए हैं पर इतनी बड़ी आबादी के अनुसार यदि हमारा प्रदर्शन बहुत ही लचर है तो अब उसके कारणों पर भी विचार किये जाने की ज़रुरत है क्योंकि केवल खेलों के लिए चिंतित रहकर हम खेलों का किसी भी तरह से अब भला नहीं कर सकते हैं. कोर्ट को अब इस मामले में एक समय सीमा रखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को अपना रुख स्पष्ट करने के लिए बुलाना चाहिए और यह भी पूछना चाहिए कि खेलों की इस दुर्दशा को देखते हुए आख़िर क्यों न नेताओं को खेल संघों में दखल देने से पूरी तरह से वंचित कर दिया जाये ? साथ ही एक राष्ट्रीय खेल नीति के प्रारूप पर भी ध्यान देकर उसे कोर्ट में जमा करने के लिए कहना चाहिए क्योंकि सभी सरकारें आज केवल उन्हीं बातों पर ध्यान देना चाहती हैं जिनसे किसी भी तरह से उन्हें वोटों का लालच होता है वरना कोई भी खेल चाहे जिस हालत में पहुँच जाये उससे उन्हें कुछ भी नहीं करना होता है. अब जब इस मामले में कोर्ट के पास मसला पहुंचा हुआ है तो सम्भवतः कोर्ट इस दिशा में स्पष्ट निर्देशों के साथ सरकार को आदेश भी जारी कर दे और खेल का माहौल शायद आने समय में सुधर जाये.     
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