एक ही समय पर जिस तरह से कानून मंत्री कपिल सिब्बल के न्यायापालिका में भ्रष्टाचार पर बंद कमरे में होने वाली सुनवाई और नीतिगत मामलों में किसी न्यायाधीश द्वारा अपने विवेक के इस्तेमाल से दिए जाने वाले फैसलों और प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवन द्वारा उसका जवाब देने से एक बार फिर से यही लगता है कि नीतिगत मामलों और भ्रष्टाचार के आरोपों को लेकर अभी भी न्यायपालिका और विधायिका में और अधिक सामंजस्य बनाये रखने की आवश्यकता है. जिस तरह से कपिल सिब्बल ने यह कहा कि एक तरफ कोर्ट सरकारी अधिकारियों के खिलाफ तो सीधे केस दर्ज़ करने की बात करती है पर अपने न्यायाधीशों के खिलाफ आरोपों की बंद कमरों में सुनवाई करती है वह तरीका सही नहीं है तो उन्हें जवाब मिल गया कि सभी कार्यवाही कानून सम्मत तरीके से ही की जाती है और किसी भी न्यायाधीश के खिलाफ आरोप लगते ही तीन सदस्यीय समिति को पूरा मामला सौंप दिया जाता है जो पूरे मामले की जांच करने के बाद ही अपनी राय देती है और आरोपों की सच्चाई सामने आ जाती है.
यहाँ पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तेज़ी बदलते वैश्विक परिवेश में आखिर वे कौन सी नीतियां या तंत्र होना चाहिए जो सरकार के नीतिगत मामलों में न्यायपालिका को भी शामिल कर सके क्योंकि सिब्बल का यह कहना बिलकुल सही है कि किसी भी नीति को बनाने में एक साल से अधिक का समय लगता है और न्यायपालिका एक क्षण में उसको पलट देती हैं तो ऐसी स्थिति में देश के समग्र विकास के बारे में नीतियां कैसे बनायीं जा सकती हैं ? सिब्बल ने इन नीतियों का अनुचित लाभ उठाने वालों के खिलाफ कार्यवाही को सही बताते हुए यह भी कहा कि इसमें शामिल पूरी प्रक्रिया को ही रद्द किये जाने से देश के विकास पर कुप्रभाव तो पड़ना ही है. संप्रग की इस सरकार के अंतिम चरण में यह एक महत्वपूर्ण बात सामने आयी है और इससे न्यायपालिका भी असहमति नहीं दिखा सकती है क्योंकि आज की व्यवस्था में कार्यपालिका अपनी नयी नीतियों के निर्धारण में किसी भी स्तर पर न्यायपालिका को शामिल नहीं करती है जिससे बड़े नीतिगत मुद्दों अपर टकराव जैसी स्थिति आ जाती है.
सबसे कठिन समस्या यही है कि पिछले कुछ दशकों से संसद का समय काम करने के स्थान पर अराजकता फ़ैलाने में ही अधिक जाने लगा है जिसके सीधा असर यह भी पड़ता है कि नीतिगत मुद्दों पर ससंदीय समितियों से बाहर जिन मुद्दों पर सदन में गम्भीर चर्चाएं हुआ करती थीं अब उनके स्थान पर केवल बिल लाना और उसे ध्वनिमत या बहुमत किसी भी तरह से पारित करवाना ही सरकार का काम हो गया है और साथ ही विपक्ष भी किसी भी नयी नीति का अलग से समर्थन तो करता है पर सदन में वह किसी भी तरह से उसका श्रेय सरकार को नहीं देना चाहता है क्योंकि तब दल विशेष को उन परिवर्तनों का लाभ मिल सकता है. क्या देश के राजनैतिक दल इस बात को समझने का प्रयास करेंगें कि उनकी हर बात पर जनता की नज़रें रहा करती हैं और देश के लिए लाभकारी नीतियां बनाने की ज़िम्मेदारी हर उस दल की हो जाती है जिसके सांसद सदन के लिए चुन लिए जाते हैं इसको दलगत भावना से आगे जाकर देखने की ज़रुरत है और भविष्य में कुछ ऐसा भी किया जाना चाहिए जिससे नयी नीतियों को बनाने या बन जाने के बाद उसके लाभ हानि के बारे में न्यायपालिका को लगातार सूचित किये जाने की मज़बूत व्यवस्था भी हो सके जिससे नयी नीतियां बनने की प्रक्रिया धीमी न हो और देश का विकास भी होता रहे.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
यहाँ पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तेज़ी बदलते वैश्विक परिवेश में आखिर वे कौन सी नीतियां या तंत्र होना चाहिए जो सरकार के नीतिगत मामलों में न्यायपालिका को भी शामिल कर सके क्योंकि सिब्बल का यह कहना बिलकुल सही है कि किसी भी नीति को बनाने में एक साल से अधिक का समय लगता है और न्यायपालिका एक क्षण में उसको पलट देती हैं तो ऐसी स्थिति में देश के समग्र विकास के बारे में नीतियां कैसे बनायीं जा सकती हैं ? सिब्बल ने इन नीतियों का अनुचित लाभ उठाने वालों के खिलाफ कार्यवाही को सही बताते हुए यह भी कहा कि इसमें शामिल पूरी प्रक्रिया को ही रद्द किये जाने से देश के विकास पर कुप्रभाव तो पड़ना ही है. संप्रग की इस सरकार के अंतिम चरण में यह एक महत्वपूर्ण बात सामने आयी है और इससे न्यायपालिका भी असहमति नहीं दिखा सकती है क्योंकि आज की व्यवस्था में कार्यपालिका अपनी नयी नीतियों के निर्धारण में किसी भी स्तर पर न्यायपालिका को शामिल नहीं करती है जिससे बड़े नीतिगत मुद्दों अपर टकराव जैसी स्थिति आ जाती है.
सबसे कठिन समस्या यही है कि पिछले कुछ दशकों से संसद का समय काम करने के स्थान पर अराजकता फ़ैलाने में ही अधिक जाने लगा है जिसके सीधा असर यह भी पड़ता है कि नीतिगत मुद्दों पर ससंदीय समितियों से बाहर जिन मुद्दों पर सदन में गम्भीर चर्चाएं हुआ करती थीं अब उनके स्थान पर केवल बिल लाना और उसे ध्वनिमत या बहुमत किसी भी तरह से पारित करवाना ही सरकार का काम हो गया है और साथ ही विपक्ष भी किसी भी नयी नीति का अलग से समर्थन तो करता है पर सदन में वह किसी भी तरह से उसका श्रेय सरकार को नहीं देना चाहता है क्योंकि तब दल विशेष को उन परिवर्तनों का लाभ मिल सकता है. क्या देश के राजनैतिक दल इस बात को समझने का प्रयास करेंगें कि उनकी हर बात पर जनता की नज़रें रहा करती हैं और देश के लिए लाभकारी नीतियां बनाने की ज़िम्मेदारी हर उस दल की हो जाती है जिसके सांसद सदन के लिए चुन लिए जाते हैं इसको दलगत भावना से आगे जाकर देखने की ज़रुरत है और भविष्य में कुछ ऐसा भी किया जाना चाहिए जिससे नयी नीतियों को बनाने या बन जाने के बाद उसके लाभ हानि के बारे में न्यायपालिका को लगातार सूचित किये जाने की मज़बूत व्यवस्था भी हो सके जिससे नयी नीतियां बनने की प्रक्रिया धीमी न हो और देश का विकास भी होता रहे.
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