मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

केजरीवाल - सपनों से धरातल तक

                                                              एक साल के कम समय में दिल्ली विधान सभा में अप्रत्याशित रूप से २८ सीटें जीतकर जन नायक बने अरविन्द केजरीवाल की बातों से जनता ने कितना अपने को जोड़ा यह तो इसी से स्पष्ट हो जाता है. जब कॉंग्रेस के धुर विरोधी होने के बाद भी आप ने उसके समर्थन से सरकार बनायीं तो भी कुछ लोगों को लगा कि अब शायद कुछ नहीं हो पायेगा पर जिस तरह से देश की स्थापित संविधानिक मर्यादाओं की धज्जियाँ उड़ाने की कसमें खाते हुए आप और अरविन्द ने दिल्ली को राजनैतिक अस्थिरता की तरफ ढकेल दिया है उसका भविष्य में देश की राजनैतिक स्थिति पर क्या असर पड़ने वाला है यह तो समय ही बता पायेगा पर इसने आप के उन समर्थकों के मन में एक शंका अवश्य ही डाल दी है कि समय आने पर परिस्थितियों का सामना करने के स्थान पर अरविन्द का इस तरह के कदम उठाना कहाँ तक सही है ? हर राजनेता और दल अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के साथ जीता है और अपने दल को आगे लाने के लिए सब कुछ दांव पर लगाना भी चाहता है तो इस दृष्टि से अरविन्द का कदम उनके हिसाब से सही भी हो सकता है.
                                                              जन लोकपाल कोई इतना बड़ा मुद्दा नहीं था कि उस पर इस तरह से कुछ नया कर पाने की कोशिश करती हुई सरकार को ही कुर्बान कर दिया जाये क्योंकि राजनीति में स्थापित मानदंडों की बातें सभी करते हैं और यदि किसी भी आदेश को केंद्र या राज्य के आदेश मानकर उनका खुले आम उल्लंघन किया जाने लगेगा तो केंद्र में सरकार चला रहे किसी भी दल के लिए यह बहुत मुश्किल ही होने वाला है. यदि अरविन्द और आप को यह लगता था कि उनके लिए आगामी लोकसभा चुनाव बहुत महत्वपूर्ण हैं तो उन्हें दिल्ली में सरकार बनानी ही नहीं चाहिए थी क्योंकि इस तरह से जब जन लोकपाल को पेश कर दिया गया था और उस पर चर्चा करने के बाद यह इस्तीफ़ा एक दो दिन बाद भी दिया जा सकता था तो इसके लिए इतनी जल्दी करने की क्या ज़रुरत थी ? आप अपने को इस चर्चा के लिए अच्छे से तैयार करना चाहिए था और अपने मुद्दों को संवैधानिक तरीके से दिल्ली विधान सभा के रेकॉर्ड में दर्ज़ करवाना चाहिए था पर उन्होंने जिस तरह से एक अच्छे मुद्दे पर सार्थक चर्चा से किनारा कर आंदोलन को चुना वह किसी भी लोकतंत्र में बहुत दिनों तक नहीं चल सकता है.
                                                             देश में बहुत सारी कमियां है पर कितने लोगों को वहाँ तक पहुंचकर आम लोगों के सपनों को साकार करने का अवसर मिलता है और जिन्हें मिल भी जाता है उनमें से कितने अपने दम पर यह सब कर भी पाते हैं ? देश की जनता को रुपहले सपने तो वीपी सिंह ने भी दिखाए थे और सरकार चलाने के समय वे कितने असहाय दिखायी पड़ते थे यह भी किसी से नहीं छिपा है. वाम दलों के खिलाफ ममता दो दशक तक संघर्षरत रहीं और जब सत्ता उनके हाथ में आयी तो उन्होंने अपने स्तर से सब कुछ ठीक करने की कोशिशें भी शुरू की. बिहार से लालू के कुनबे की विदाई के बाद नितीश ने भी काफी हद तक सुधार किये और उनका चुनावी लाभ भी लिया पर जब भी इस तरह से आम लोगों की ज़रूरतों को सपना बना दिया जाता है और वह पूरा नहीं होता तो जनता अपने को ठगा सा ही महसूस करती हैं और उस स्थिति में देश के राजनैतिक ढांचे के लिए उनके मन में सम्मान और भी कम हो जाता है. केजरीवाल का पलायनवादी रुख भले ही उन्हें आगामी चुनावों में कुछ राजनैतिक बढ़त देने में सफल हो जाये पर उनके काम करने की शैली और क्षमता पर लगने वाले इस प्रश्न चिन्ह को हटाने में पूरी आप के लगने से भी कुछ आसान नहीं होने वाला है.      
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें