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गुरुवार, 8 मई 2014

चुनाव ड्यूटी और राज्य के अधिकारी

                                                           इस बार चुनाव होने के माहौल के साथ ही जितनी बड़ी संख्या में पार्टियों और प्रत्याशियों द्वारा मतदान के निष्पक्ष होने पर सवाल लगाये हैं वह संभवतः शेषन के युग के बाद पहली बार ही हुआ है क्योंकि इस बार चुनाव केवल राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति से बढ़कर असभ्यता की सारी सीमायें पार करते हुए ही दिखे हैं. इस सबके बीच शांति के साथ काम करने वाले किसी भी चुनाव आयुक्त की कार्यशैली संभवतः राजनैतिक दलों को रास नहीं आ रही है इसीलिए उनकी तरफ से इस बार आयोग को भी निशाना बनाया जा रहा है. आज लगभग हर दल के उन नेताओं की लम्बी सूची सामने रखी जा सकती है जिसके दम पर वे चुनाव जीतने की बात तो कर रहे हैं पर उनके द्वारा चुनाव आयोग को निशाना बनाया जाना किसी को भी दिखाई नहीं देता है. आज भी चुनाव आयोग के सामने निष्पक्ष चुनाव कराये जाने में सबसे बड़ी चुनौती केवल यही आती है कि उसके पास राज्य सरकारों से उधार में मिला हुआ एक ऐसा तंत्र होता है जो चुनाव के बाद अपनी उसी सरकार के लिए ज़िम्मेदार होता है.
                                                         ऐसी परिस्थिति में क्या चुनाव आयोग को किसी भी कर्मचारी और अधिकारी की चरित्र पत्रिका में चुनावी ड्यूटी से सम्बंधित मामलों में प्रतिकूल प्रविष्टि करने का अधिकार भी नहीं होना चाहिए जिससे कम से कम किसी दल विशेष से प्रभावित या उसका चुनावी कार्यों में समर्थन करने वाले अधिकारियों से प्रभावी तरीके से निपटने में सहायता मिल सके ? आज भी चुनाव आयोग को मज़बूरी में ही सही पर शिकायतों को ध्यान में रखते हुए आचार संहिता लागू होने के बाद भी बड़ी संख्या में तबादले करने पर मजबूर होना पड़ता है क्योंकि यह अधिकारियों का वही समूह होता है जो दल विशेष से प्रभावित होता रहता है. आज भी यह स्थिति कुछ अलग नहीं है पहले के मुकाबले इतना अवश्य हुआ है कि चुनावी ड्यूटी को कोई भी अधिकारी अब उतनी लापरवाही से नहीं लेता है जैसा पहले हुआ करता था फिर भी आज चुनाव आयोग को अघोषित अधिकारों के अधिकारों के स्थान पर स्पष्ट अधिकारों की अधिक आवश्यकता है.
                                                        अब इस पूरी कवायद को किस तरह से सुधारा जाये आज यह सबसे बड़ा प्रश्न बनकर सामने आ चुका है क्योंकि चुनावों में जिस भी दल को विजय मिल जाती है वह उन नियमों को सही मान लेता है जबकि विपक्षी दल केवल आरोप लगाने के काम में ही लगे रहते हैं. आज के युग में जब इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों से चुनाव होने लगे हैं तो क्या कहीं पर इतनी आसानी से मतदान केन्द्रों पर कब्ज़ा किया जा सकता है क्योंकि इसके माध्यम से प्रति घंटे अधिकतम मत पड़ सकने की एक सीमा भी है जिससे आगे कोई भी नहीं जा सकता है. चुनाव के प्रतिशत को अनियमितता का कोई पैमाना भी नहीं बनाया जा सकता है क्योंकि किसी पार्टी विशेष के गढ़ में शत प्रतिशत मत भी किसी एक प्रत्याशी को मिल जाया करते हैं जबकि वहां से किसी भी तरह की अनियमितता की कोई शिकायत नहीं मिलती है और लम्बी कतारें भी पूरे दिन दिखाई देती रहती हैं. अब नेताओं के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता आयोग के लिए मज़बूत उपाय करने के हैं न कि हर बात पर आयोग को निशाने पर लेने के क्योंकि बिना पूरी शक्ति के आयोग के फैसलों को भी कोर्ट में चुनौती देने का सिलसिला चलता ही रहता है. 
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